अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (67) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18

( श्रीगीताजी का माहात्म्य )

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥

 

ये न ज्ञान देना उसे ,जो न तपी, मम भक्त

जो अनेच्छु, द्वेषी मेरा, मुझमें न अनुरक्त ।।67।।

 

भावार्थ :  तुझे यह गीत रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-(वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्य भाव का नाम ‘भक्ति’ है।)-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए॥67॥

  1. This is never to be spoken by thee to one who is devoid of austerities, to one who is not devoted, nor to one who does not render service, nor who does not desire to listen, nor to one who cavils at Me.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

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 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈