श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
अध्याय 18
( श्रीगीताजी का माहात्म्य )
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ॥
तथा हे राजन ! याद कर ,प्रभु का अद्भुत रूप
विस्मित, पुलकित गात हॅू, हर्षित साथ अनूप ।।77।।
भावार्थ : हे राजन्! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम ‘हरि’ है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ॥77॥
And remembering again and again also that most wonderful form of Hari, great is my wonder, O King! And I rejoice again and again!
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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