श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(श्रद्धा का और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय)

 

कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।

मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌ ।।6।।

पंचभूत काया तथा आत्मा को तप कष्ट

जो देते वे असुर है, अविवेकी अतिअज्ञ ।।6।।

भावार्थ :   जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ”कृश करना” है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान ।।6।।

 

Senseless, torturing  all  the  elements  in  the  body  and  Me  also,  who  dwells  in  the body,-know thou these to be of demoniacal resolves. ।।6।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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