श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
अध्याय १७
(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।।14।।
द्विज, गुरू, ज्ञानी देव की पूरा सरल अहिंसा धार
की जाती वह तपस्या, कायिक विधि अनुसार ।।14।।
भावार्थ : देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ।।14।।
Worship of the gods, the twice-born, the teachers and the wise, purity, straightforwardness, celibacy and non-injury—these are called the austerities of the body. ।।14।।
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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