डा. मुक्ता
अतिथि संपादक – ई-अभिव्यक्ति: संवाद–25
(मैं आदरणीया डॉ मुक्ता जी का हृदय से आभारी हूँ। उन्होने आज के अंक के लिए अतिथि संपादक के रूप में अपने उद्गार प्रकट किए।डॉ मुक्ता जी ने ई-अभिव्यक्ति: संवाद–22 के संदर्भ में मेरे आग्रह को स्वीकार कर अपने बहुमूल्य समय में से मेरे लिए अपने हृदय के समुद्र से मोतिस्वरूप शब्दों को पिरोकर जो यह शुभाशीष दिया है, उसके लिए मैं निःशब्द हूँ। यह आशीष मेरे साहित्यिक जीवन की पूंजी है, धरोहर है। इसी अपेक्षा के साथ कि – आपका आशीष सदैव बना रहे। आपका आभार एवं सादर नमन। )
हृदय में जब सुनामी आता /सब कुछबहाकर ले जाता। गगनचुंबी लहरों में डूबता उतराता मानव। । प्रभु से त्राहिमाम …… त्राहिमाम की गुहार लगाता/लाख चाहने पर भी विवश मानव कुलबुलाता-कुनमुनाता परंतु नियति के सम्मुख कुछ नहीं कर पाता और सुनामी के शांत होने पर चारों ओर पसरी विनाश की विभीषिका और मौत के सन्नाटे की त्रासदी को देख मानव बावरा सा हो जाता है और एक लंबे अंतराल के पश्चात सुकून पाता है ।
इसी प्रकार साहित्यकार जन समाज में व्याप्त विसंगतियों – विशृंखलताओं और विद्रूपताओं को देखता है तो उस्का अन्तर्मन चीत्कार कर उठता है। वह आत्म-नियंत्रण खो बैठता है और जब तक वह अंतरमन की उमड़न-घुमड़न को शब्दों में उकेर नहीं लेता, उसके आहत मन को सुकून नहीं मिलता। वह स्वयं को जिंदगी की ऊहापोह में कैद पाता है और उस चक्रव्युह से बाहर निकलने का भरसक प्रयास करता है। परंतु, उस रचना के साकार रूप ग्रहण करने के पश्चात ही वह उस सृजन रूपी प्रसव-पीड़ा से निजात पा सकता है। वह सामान्य मानव की भांति सृष्टि-संवर्द्धन में सहयोग देकर अपने दायित्व का निर्वहन करता है।
जरा दृष्टिपात कीजिये, हेमन्त बावनकर जी की रचना ‘स्वागत’ पर …. एक पुरुष की परिकल्पना पर जिसने गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं को सहज-साकार रूपाकार प्रदान किया है, जो उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। वे गत तीन दिन तक नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविताओं ‘Tearful Adieu’ एवं ‘Fear of Future’ और प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता ‘यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है’ को पढ़कर उद्वेलित रहे। इन कविताओं ने उन्हें उनकी रचना ‘स्वागत’ की याद दिला दी जिसकी रचना उन्होने अपनी पुत्रवधु के लिए की थी जब वह गर्भवती थी।
उस समय उनके मन का ज्वार-भाटा ‘स्वागत’ कविता के सृजन के पश्चात ही शांत हुआ होगा, ऐसी परिकल्पना है । हेमन्त जी ने नारी मन के उद्वेलन का रूपकार प्रदान किया है – भ्रूण रूप में नव-शिशु के आगमन तक की मनःस्थितियों का प्रतिफलन है। उन दोनों के मध्य संवादों व सवालों का झरोखा है जो बहुत संवेदनशील मार्मिक व हृदयस्पर्शी है।
‘स्वागत’ कविता को पढ़ते हुए मुझे स्मरण हो आया, सूरदास जी की यशोदा मैया का, कृष्ण की बालसुलभ चेष्टाओं व प्रश्नों का, जो गाहे-बगाहे मन में अनायास दस्तक देते हैं और वह उस आलौकिक आनंद में खो जाती है। ‘सूर जैसा वात्सल्य वर्णन विश्व-साहित्य में अनुपलब्ध है….. मानों वे वात्सल्य का कोना-कोना झांक आए हैं? कथन उपयुक्त व सार्थक है। हेमन्त जी ने इस कविता के माध्यम से एक भ्रूण के दस्तक देने से मन में आलोड़ित भावनाओं को बखूबी उड़ेला है व प्रतिपल मन में उठती आशंकाओं को सुंदर रूप प्रदान किया है। भ्रूण रूप में उस मासूम व उसकी माता के मन के अहसासों-जज़्बातों व भावों-अनुभूतियों को सहज व बोधगम्य रूप में प्रस्तुत किया है। भ्रूण का हिलना-डुलना, हलचल देना उसके अस्तित्व का भान कराता है, मानों वह उसे पुकार रहा हो। वह सारी रात उसके भविष्य के स्वप्न सँजोती है। नौ माह तक बच्चे से गुफ्तगू करना, अनगिनत प्रश्न पूछना, मान-मनुहार करना उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न संजोना, रात भर माँ का लोरी तथा पिता का कहानी सुनना। दादा-दादी का उसे पूर्वजों की छाया-प्रतीक रूप में स्वीकारना, जहां उनके बुजुर्गों के प्रति श्रद्धाभाव को प्रदर्शित करता है वहीं भारतीय संस्कृति में उनके अगाध-विश्वास को दर्शाता है, वही उससे आकाश की बुलंदियों को छूने के शुभ संस्कार देना, माँ के दायित्व-बोध व अपार स्नेह की पराकाष्ठा है, जिसमें नवीन उद्भावनाओं का दिग्दर्शन होता है।
भ्रूण रूप में उस मासूम के भरण-पोषण की चिंता, गर्मी, सर्दी, शरद, वर्षा ऋतु में उसे सुरक्षा प्रदान करना। सुरम्य बर्फ का आँचल फैलाना उसके आगमन पर हृदय के हर्षोल्लास को व्यक्त करता है। मानव व प्रकृति का संबंध अटूट है, चिरस्थायी है और प्रकृति सृष्टि की जननी है। और दिन-रात, मौसम का ऋतुओं के अनुसार बदलना तथा अमावस के पश्चात पूनम का आगमन समय की निरंतर गतिशीलता व मानव का सुख-दुख में सं रहने का संदेश देता है।
परन्तु, माता को नौ माह का समय नौ युगों की भांति भासता है जो उसके हृदय की व्यग्रता-आकुलता को उजागर करता है। धार्मिक-स्थलों पर जाकर शिशु की सलामती की मन्नतें मानना व माथा रगड़ना जहां उसका प्रभु के प्रति श्रद्धा -विश्वास व आस्था के प्रबल भाव का पोषक है, वहीं उसकी सुरक्षा के लिए गुहार लगाना, अनुनय-विनय करना भी है।
अंत में माँ का अपने शिशु को संसार के मिथ्या व मायाजाल और जीवन में संघर्ष की महत्ता बतलाना, आगामी आपदाओं व विभीषिकाओं का साहस से सामना करने का संदेश देना बहुत सार्थक प्रतीत होता है। परंतु माँ का यह कथन “मैंने भी मन में ठानी है, तुम्हें अच्छा इंसान बनाऊँगी’ उसके दृढ़ निश्चय, अथाह विश्वास व अगाध निष्ठा को उजागर करता है। यह एक संकल्प है माँ का, जो उस सांसारिक आपदाओं में से जूझना ही नहीं सिखलाती, बल्कि स्वयं को महफूज़ रखने व सक्षम बनाने का मार्ग भी दर्शाती है।
हेमन्त जी ने ‘स्वागत’ कविता के माध्यम से मातृ-हृदय के उद्वेलन को ही नहीं दर्शाया, उसके साथ संवादों के माध्यम से हृदय के उद्गारों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है। उनका यह प्रयास श्लाधनीय है, प्रशंसनीय है, कल्पनातीत है। उनकी लेखनी को नमन। उनकी चारित्रिक विशेषता व साहित्यिक लेखन के बारे में मुझे शब्दभाव खलता है और मैं अपनी लेखनी को असमर्थ पाती हूँ। वे साहित्य जगत के जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति पूरी कायनात में सदैव जगमगाते रहें तथा अपने भाव व विचार उनके हृदय को आंदोलित-आलोकित करते रहें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ —
शुभाशी,
मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।)
अदभुद विश्लेषण।