ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 32
आज के अंक में दो कवितायें प्रकाशित हुई हैं । सुश्री सुषमा सिंह जी, नई दिल्ली की “कविता” एवं श्री मनीष तिवारी जी, जबलपुर की “साहित्यिक सम्मान की सनक”। आश्चर्य और संयोग है की दोनों ही कवितायें सच को आईना दिखाती हैं। सुश्री सुषमा सिंह जी की “कविता” शीर्षक से लिखी गई कविता वास्तव में परिभाषित करती है कि कविता क्या है? यह सच है कि संवेदना के बिना कविता कविता ही नहीं है। मात्र तुकबंदी के लिए शब्दसागर से शब्द ढूंढ कर पिरोने से कविता की माला में वह शब्दरूपी पुष्प अलग ही दृष्टिगोचर होता है और माला बदरंग हो जाती है। इससे तो बेहतर है अपनी भावनाओं को गद्य का रूप दे दें।
इसी परिपेक्ष्य में मैंने अपनी कविता “मैं मंच का नहीं मन का कवि हूँ” में कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं जो मुझे याद आ रही हैं।
जब अन्तर्मन में कुछ शब्द बिखरते हैं
जब हृदय में कुछ उद्गार बिलखते हैं
तब जैसे
शान्त जल-सतह को
कंकड़ तरंगित करते हैं।
तब वैसे
शब्द अन्तर्मन को स्पंदित करते हैं।
बस
कोई घटना ही काफी है।
बच्चे का जन्म
बच्चे की किलकारी
फूलों की फुलवारी
राष्ट्रीय संवाद
व्यर्थ का विवाद
यौवन का उन्माद
गूढ़ चिंतन सा अपवाद।
इन सबके उपरान्त
किसी अपने का
किसी वृद्ध का देहान्त
हो सकता है एक कारण
कुछ भी हो सकता है कारण
तब हो जाता है कठिन
रोक पाना मन उद्विग्न।
तब जैसे
मन से बहने लगते हैं शब्द
व्याकुल होती हैं उँगलियाँ
ढूँढने लगती हैं कलम
और फिर
बहने लगती है शब्द सरिता
रचने लगती है रचना
कथा, कहानी या कविता।
शायद इसीलिए
कभी भी नहीं रच पाता हूँ
मन के विपरीत
शायरी, गजल या गीत।
नहीं बांध पाता हूँ शब्दों को
काफिये मिलाने से
मात्राओं के बंधों से
दोहे चौपाइयों और छंदों से।
शायद वो प्रतिभा भी
जन्मजात होती होगी।
जिसकी लिखी प्रत्येक पंक्तियाँ
कालजयी होती होंगी
आत्मसात होती होंगी।
मैं तो बस
निर्बंध लिखता हूँ
स्वछंद लिखता हूँ
मन का पर्याय लिखता हूँ
स्वांतः सुखाय लिखता हूँ।
दूसरी कविता जिसका उल्लेख मैं ऊपर कर रहा था वह ख्यातिलब्ध कवि पंडित मनीष तिवारी जी की कविता “साहित्यिक सम्मान की सनक”। यह कविता सुश्री सुषमा सिंह जी की “कविता” के विपरीत उन साहित्यिकारों पर कटाक्ष है जो सम्मान की सनक में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। संपर्क, खेमें, पैसे और अन्य कई तरीकों से प्राप्त सम्मान को कदापि सम्मान की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता। श्री मनीष तिवारी जी की सार्थक, सटीक एवं बेबाक व्यंग्य आईना दिखाती है उन समस्त तथाकथित साहित्यकारों को जो साहित्यिक सम्मान की सनक से पीड़ित हैं ।
साथ ही मुझे डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के पत्र की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं जो उन्होने मुझे आज से 37 वर्ष पूर्व लिखा था –
“एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार। हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।”
इसके अतिरिक्त आज आप पढ़ेंगे सुश्री विजया देव जी की मराठी कविता “व्रुत्त अनलज्वाला” एवं श्री जगत सिंह बिष्ट जी के हास्य योग की यात्रा में उनके हास्य योग के न्यूजीलेंड से पधारे मित्र केरोलिन एवं डेस की स्मृतियाँ ।
आज बस इतना ही।
हेमन्त बवानकर
4 मई 2019