श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे
कवितेचा उत्सव
☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 154 – देवा पांडुरंगा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆
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देवा पांडुरंगा।
पाहसी का अंत।
दाटलीसे खंत।
माझ्या मनी।।१।।
गेली दोन सालं।
लेकरे बंदिस्त।
घातली रे गस्त।
कोरोनाने।।२।।
आषाढीची वारी।
निघे पांडुरंगा।
येऊ कैसे सांगा।
पंढरीत।।३।।
बालकात दिसे।
विठू रखुमाई।
शिकण्याची घाई।
तया लागी।।४।।
खडू फळा जणू।
टाळ नि मृदुंग।
पुस्तकात दंग।
पांडुरंग।।४।।
वाचतो मी नेमे।
अक्षरांची गाथा।
ज्ञानार्जनी माथा।
ठेवी नित्य।।५।।
पुन्हा जोडलीया।
शिक्षणाची नाळ।
विठाईच बाळ।
भासे मज ।।६।।
देवा पांडुरंगा।
आम्ही वारकरी।
शिक्षण पंढरी।
ध्यास ऊरी।।७।।
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© रंजना मधुकर लसणे
आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली
9960128105
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈