(समाज , संस्कृति, साहित्य में ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की सोशल मीडिया की टेगलाइन “माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं। आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक भावप्रवण कविता “सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ”। आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प एकवीस # 21 ☆
☆ सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ☆
सरीता ही
संजीवनी
सागराची
ओढ मनी. . . !
खाडी मुख
उधाणले
मिलनास
आतुरले.. . !
देत आली
जीवनास
समर्पण
सागरास. . . . !
सरीतेचे
गोड पाणी
सागराची
गाजे वाणी. . . . !
लाटातून
झेपावतो
सरीतेला
स्वीकारतो. . . . !
मिलनाची
दैवी रीत
सरीतेची
न्यारी प्रीत.. . . !
मिलनाची
ओढ अशी
अवगुण
पडे फशी.. . !
जीवतृष्णा
भागवीते
सागरात
मिसळीते.. . . !
प्रेम प्रिती
समतोल
मिलनाचे
जाणे मोल. . . . !
वरूणाचे
पाणिबंध
मिलनाचा
स्मृती गंध.. . . !
© विजय यशवंत सातपुते
यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी, सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.
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