(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात” में उनकी एक कविता “जिद्द”. इस कविता को मैंने कई बार पढ़ा और जब भी पढ़ा तो एक नए सन्दर्भ में। मुझे मेरी कविता “मैं मंच का नहीं मन का कवि हूँ ” की बरबस याद आ गई। यदि आप पुनः मेरी कविता के शीर्षक को पढ़ें तो कहने की आवश्यकता नहीं, यह शीर्षक ही एक कविता है। मैं कुछ कहूं इसके पूर्व यह कहना आवश्यक होगा कि अहंकार एवं स्वाभिमान में एक बारीक धागे सा अंतर होता है। सुश्री प्रभा जी की कविता “जिद्द” में मुझे दो तथ्यों ने प्रभावित किया। कविता में उन्होंने जीवन की लड़ाई में सदैव सकारात्मक तथ्यों को स्वीकार किया है और नकारात्मक तथ्यों को नकार दिया है। सदैव वही किया है, जो हृदय ने स्वाभिमान से स्वीकार किया है । अहंकार का उनके जीवन में कोई महत्व नहीं है। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 21 ☆
☆ जिद्द ☆
ही जिद्दच तर होती,
जीवनाची प्रत्येक लढाई
जिंकण्याची!
हवे ते मिळविण्याची !
किती मिळाले, किती निसटले
आठवत नाही ….
पण आठवते,
अथांगतेचा तळ गाठल्याचे,
आकाशात मुक्त विहरल्याचेही !
कोण काय बोलले,
कोण काय म्हणाले, आठवत नाही….
पण किती तरी क्षण
कुणी कुणी—
डोक्यावर ताज ठेवल्याचे,
आठवतात, आठवत रहातात!
ती जिद्दच तर होती—
उंबरठ्याच्या बाहेर पडण्याची,
नको ते नाकारण्याची,
हातातली कांकणे,पायातली पैंजणे,
किणकिणत राहिली, छुमछुमत राहिली…
पण ही जिद्दच होती
‘माणूसपण’ जपण्याची,
‘स्व’त्व टिकवण्याची…
सारे पसारे मांडून,
सम्राज्ञी सारखं जगण्याची!
© प्रभा सोनवणे
“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011
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