सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  सोलहवीं  कड़ी  माणूस असला की गरज लागते…।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। यह सत्य है कि  जीवन  का कोई भी कार्य  किसी  के बिना रुकता नहीं है। समय पर हम उस व्यक्ति का स्मरण अवश्य करते हैं, जो अब नहीं है, किन्तु, कार्य यथावत चलता रहता है।समय हमें समय समय पर शिक्षा देता रहता है बस आवश्यकता है हमारी छाया हमारे साथ चलती रहे और यही समय की आवश्यकता भी है। कभी कल्पना कर देखिये।  आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #16 ?

 

☆ माणूस असला की गरज लागते… ☆

 

माणूस असला की गरज लागते…

आणि नसला तर????

गरज संपत नाही, पण कदाचित त्या गरजेची प्रायोरिटी बदलते… आणि आयुष्याशाला वेगळी कलाटणी मिळते… ती व्यक्ती नाही, हे स्वीकारण्याची गरज निर्माण होते आणि त्या पातळीवर काम सुरू होतं…

ह्या प्रवासात, प्रवाहात वाहताना कुठे थांबायचं, कुठे वळण घ्यायचं हे ठरवता आलं पाहिजे… त्याचबरोबर काही मागे सोडून देता आलं पाहिजे, हो ना !

मान्य आहे की प्रत्येक वेळी हे शक्य होणार नाही… पण आयुष्याशी दिशा ठरलेली असली की काम थोडं सोपं होतं…. गरजेचं भान असलं पाहिजे, ती पूर्ण करताना लय ताल मोडून चालत नाही… सगळ्यांना सोबत घेऊनच पुढे जावं लागेल…

खूप गोष्टी शिकवून जातं हे नसणं आणि असणं… आपण फक्त त्या सावळ्याला सांभाळून घे बाबा, असं सांगत राहायचं… हो ना!

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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