श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। ) 

नर्मदा परिक्रमा 2
ग्वारीघाट से तिलवारा घाट
ग्वारीघाट से चले दो घंटे हो चुके थे। तिलवारा घाट शाम तक पहुँचने का लक्ष्य था। तिलवारा घाट का पुल तीन किलोमीटर पहले से दिखने लगा था। उसे देखते ही लगा कि लो पहुँच गए तिलवारा घाट परंतु चलते-चलते पुल नज़दीक ही नहीं आ रहा था।
पुल के  दृश्य का पेनोरमा नज़ारा जैसा का तैसा बना था।
तभी सामने एक बड़ा चौड़ा पहाड़ी नाला रास्ता रोककर खड़ा हो गया। खेतों में काम कर रहे मल्लाहों से पूछा तो उन्होंने बताया कि दो किलोमीटर ऊपर चढ़कर नाला पार करके नागपुर रोड पर पहुँच कर तिलवारा घाट पहुँचा जा सकता है इसका मतलब हुआ चार किलोमीटर का चक्कर। सबके पसीने छूट गए।
टी पी चौधरी साहब सपत्नीक गेंदों की मालाओं, नारियल,फल और ढेर सारा प्यार व परकम्मावासियों के प्रति हृदय में सम्मान आस्था लेकर तिलवारा घाट पर खड़े थे। हमारी स्थिति लेते रहे थे।  मोबाइल से उनको निवेदन किया कि एक नाव घाट से भिजवा दें। इसके पहले कि वे घाट पर आएँ, एक नाविक को हम दिख गए और हमने भी तेज़ आवाज़ के साथ हाथ हिलाए। एक नाव में बैठकर तिलवारा घाट पर उतरे। चौधरी साहब ने बड़ी आत्मीयता और सम्मान से मालाओं को पहनाकर स्वागत किया और नारियल चीरोंजी अर्पित किया मानो हम देव हो गए हों। हमेशा की तरह हम उनके चरणस्पर्श करने को झुके तो उन्होंने हमें रोक दिया क्योंकि हम परिक्रमा वासी थे। भाभी जी अभिभूत थीं। उनका मातृवत प्रेम पूरी यात्रा हमारे साथ चला। सब लोग चौधरी दम्पत्ति के बारे में बतियाते रहे।
वैराग्य पर बातें करने लगे। घर, कपड़े, बिस्तर, पानी, खाना, पंखा, फ़र्निचर, गद्दे, गाड़ी, रुपया-पैसे, रिश्ते-नाते इन सब से परे भगवान भरोसे सिर्फ़ भगवान भरोसे। न रास्ते का पता, न खाने का पता, न ठिकाने का पता।
बस एक अवलंबन नर्मदा, जिसके भरोसे ईश्वर के रिश्ते की डोर आदमियत से बंधी है। बस वही बचाएगी, वही खिलाएगी, वही सुलाएगी।
सब कुछ तोड़कर और सब कुछ छोड़कर उसकी धारा में जाओगे तो वह पार लगाएगी। कर्मकांड से परे एक दीपक आस्था का। जूझो धूप से, पहाड़ से, पानी से, इंसानी नादानी से।
धौंकनी सा चलता दिल, पिघल कर पसीना होती देह और आत्मा में तारनहार के प्रति असीम आस्था की परीक्षा है नर्मदा यात्रा।
जिस घर के सामने पहुँचकर कंठ से  “नर्मदे हर” का अलख जगाया। उत्तर में हर-हर नर्मदे का स्वर घर के सभी सदस्यों की आवाज़ में एकसाथ गूंजा और सबसे बुज़ुर्ग सदस्य की आवाज़ सुनाई देती है बैठो साहब पानी पी लो, चाय पी लो, भोजन बना दें।
सिर्फ़ आदमियत का रिश्ता कि पूरी पृथ्वी के जीव एक ही ब्रह्म के अंश हैं। सब अन्योनाश्रित हैं। वसुधेव कुटुम्बकम। भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य, जो मानवता वादियों का सबसे बड़ा संबल है। धर्म का सच्चा रूप। दुनिया की आतंकवाद के विरुद्ध एकमात्र आशा।
अत्यावश्यक से परे न्यूनतम पर जीवन पर विचार हुआ। भूख, भोजन, यौनइच्छा और आराम ये चार चीज़ें मानुष और पशु को प्रकृति की अनिवार्य देन हैं क्योंकि जीवन का चक्र इन्हीं से गतिमान होता है। भूख है तो भोजन की तलाश है, शरीर की थकान से भरपेट भोजन मिला तो यौन इच्छा जागती है, जिसकी पूर्ति होते ही नींद की प्रगाढ़तावश आराम अनिवार्य हो जाता है।
छः दिन भूख, भोजन, यौनइच्छा से परे सुबह से शाम तक चलते-चलते चूर होने से भूख मिट गई, भोजन नहीं मिला तो यौनइच्छा लुप्त सी रही क्योंकि काम की जननी ऊर्जा का अंश देह में बचा ही नहीं।
यहाँ से प्रथम सह यात्री विनोद प्रजापति दमोह को वापिस चले गये, श्रीवर्धन नेमा व रवि भाटिया जबलपुर।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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