हिन्दी साहित्य- लघुकथा – डस्टबिन – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डस्टबिन

विवाह सम्बन्ध के लिए आये परिवार में अलग से परस्पर बातचीत में नवयुवती शीला ने युवक मनोज से पहला सवाल किया”

आपके घर में भी डस्टबिन तो होंगे ही, बताएंगे आप कि, उनमें सूखे कितने हैं और गीले कितने?

समझा नहीं मैं शीला जी, डस्टबिन से आपका क्या तात्पर्य है!

तात्पर्य यह है मनोज जी कि–

आपके परिवार में कितने बुजुर्ग हैं? इनमें सूखे से आशय-जो कोई काम-धाम करने की हालत में नहीं है पर अपनी सारसंभाल खुद करने में सक्षम है और गीले डस्टबिन से मेरा मतलब अशक्त स्थिति में बिस्तर पर पड़े परावलंबी व्यक्ति से है।

तुम्हारा मतलब,  बुजुर्ग डस्टबिन होते हैं?

हाँ, सही समझे, यही तो मैं कह रही हूँ।

ओहो! कितनी एडवांस हैं आप शीला जी, आपके इन सुंदर नवाधुनिक क़विचारों ने तो मेरे ज्ञानचक्षु ही खोल दिये।

अब मैं आपके ही शब्दों में बताता हूँ, यह कि–

हाँ, है मेरे घर में, सूखे और गीले दोनों तरह के डस्टबिन जो हमारी गलतियों, भूलों, कमियों व अनचाहे दूषित तत्वों को अपने में समेटते-सोखते हुए अपने आशीष भावों से सदैव हमारे स्वास्थ्य, सुख एवं समृद्धि की कामना करते रहते हैं।

ये वही डस्टबिन हैं जिनकी वजह से मेरा घर-परिवार व आसपास का संसार शुरू से स्वच्छ और सुंदर बना हुआ है।

शीला जी, मेरी राय मानो तो,- आप इन गीले सूखे पचड़ों में पड़ने की बजाय कोई नितांत डस्टबिन रहित घर-वर अपने लिए ढूंढ लें, शायद सभी मनचाहे सुख प्राप्त हो जाएं।

हाँ एक समस्या हो सकती है,वो है – ” घर के कूड़े-कचरे की”

पर चिंता न करें, समय के साथ आखिर एक दिन आपको भी तो डस्टबिन में तब्दील होना ही है, तभी इस समस्या के निदान के साथ साफ-सफाई के बारे में भी सोच लेना।

अच्छा, चलता हूँ शीला जी, बाय…..

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’