श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज प्रस्तुत है स्वर्गीय राजुरकर राज जी की स्मृति में यह आलेख “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…”।)
आलेख – “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
15 फ़रवरी 2023 का दिन भोपाल के साहित्यकारों के लिए एक मायूसी भरा दिन रहा। सुबह ही हर दिल अज़ीज़ राजुरकर राज के अवसान की खबर मिली। जो जहाँ था, उसने आँख मूँद कर हृदय विदारक खबर को ईश्वर का विधान समझ कर स्वीकार किया। फिर भी सहसा अहसास हुआ कि दुष्यंत संग्रहालय पहुँचेंगे तो बीमारी से त्रस्त देह पर एक मुस्कुराता चेहरा उनका स्वागत करेगा। वह आपको पता नहीं चलने देगा कि वह अंदर ही अंदर सिमट रहा है। संग्रहालय की योजनाओं को मूर्त रूप न देने पाने के जुनून में घुट रहा है। वह एक बहुत बड़े ख़्वाब के ताबीर के बहुत नज़दीक था। उसे भरोसा हो चला था कि शासन से ज़मीन का एक टुकड़ा मिल जाये तो संग्रहालय का ख़ुद का भवन भोपाल के ज़मीन पर खड़ा हो जाये। एक ऐसा तीर्थ स्थल बन जाये जहाँ भोपाल पहुँचने वाले हर कलाप्रेमी साहित्यकार की आँखें नम होकर पूर्वजों की धरोहर को नमन करें। नियति उसे चेतावनी देती थी। वो उसे कान पर भिनभिनाती मक्खी समझ एक हाथ से झटक देता और ख़्वाब को सच करने के बारे में योजना बनाने लगता। इसके पहले कि भोपाल में ज़मीन का टुकड़ा उसके ख़्वाब के ताबीर का सबब बने, वह ख़ुद ज़मींदोज़ हो गया।
हम सबके पास समय तो होता है लेकिन कोई लक्ष्य और उसे पूरा करने की ज़िद, जुनून और जोश नहीं होता जो राजुरकर के रोम-रोम में समाया था। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, महुआ हाउस में कार्यकारिणी की बैठक में उत्साह से भरा आदमी संग्रहालय की योजनाओं का न सिर्फ़ खाका खींच रहा था अपितु उन्हें साकार करने की ज़िद के वशीभूत निर्णयों की भूमिका तैयार कर रहा था।
यह महत्वपूर्ण नहीं है की एक सपना पूरा हुआ या नहीं बल्कि यह मायने रखता है कि सपना देखना और उसे पूरा करने में पूरी सिद्दत से लगे रहना- यही राजुरकर राज था।
ख़्वाब देखना मनुष्य की मजबूरी है। उसे पूरा होने देना या बिसूर देना रब की जी हुज़ूरी है। लेकिन राजुरकर के ख़्वाब को पूरा करना हम सबको ज़रूरी है। वही उन्हें सच्ची श्रद्धांजली होगी। दुष्यंत और उनके सच्चे प्रेमी राजुरकर की यादों को संजोने का एक स्मृति स्थल साकार हो जाये। अशोक निर्मल, रामराव वामनकर और संग्रहालय की कार्यकारिणी सदस्यों पर यह महती ज़िम्मेदारी आन पड़ी है। भोपाल ही नहीं भारत भर के साहित्य प्रेमी उनके ख़्वाब को भोपाल की सरज़मीं पर उतरते देखना चाहेंगे।
© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈