श्री सदानंद आंबेकर
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य। माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी की एक विचारणीय लघुकथा “पैसों का पेड़”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – पैसों का पेड़ ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆
नरेन्द्र और सुरेन्द्र एक पिता के दो पुत्र , सगे भाई,
नरेन्द्र ने शहर से इंजीनियरिंग किया,
सुरेन्द्र ने गांव के कॉलेज से बीए
नरेन्द्र ने एसएसबी की परीक्षा पास की और दिल्ली के केंद्रीय सचिवालय में राजपत्रित अधिकारी बन गया
सुरेन्द्र ने बूढे होते पिता की लगभग पांच बीघे की खेती संभाल ली
नरेन्द्र ने अपने अधिकारी मि थॉमस की बेटी जेनिफर से शादी कर ली
सुरेन्द्र ने पास के ही गांव में मामा के साले की बेटी से शादी कर ली
नरेन्द्र के घर कुछ समय बाद दो जुडवां बेटे हुये
सुरेन्द्र के यहां एक बेटा जन्मा
नरेन्द्र ने बैंक से ऋण लेकर दिल्ली में बंगला खरीदा जिसमें तीन एसी लगे थे
सुरेन्द्र ने गांव में ही सस्ते में दो एकड जमीन और ले ली और घर की छत पक्की करवा कर आसपास नीम पीपल जामुन के पेड लगवा लिये
नरेन्द्र ने बेटों को महंगे स्कूल में भर्ती किया और उनके लिये नौकर रखा
सुरेन्द्र ने बेटे को गांव की पाठशाला में भेजा और उसकी हर वर्षगांठ पर नई खरीदी जमीन पर दशहरी आम के पांच पौधे लगाये
नरेन्द्र की तीस वर्ष बाद सेवा निवृत्ति तक उसके दोनों बेटे पढने विदेश चले गये
सुरेन्द्र के अधेड होते होते उसके बेटे ने पिता की खेती और आम के बगीचे में लगे सौ पेडों का काम संभाल लिया
नरेन्द्र सेवानिवृत्ति के बाद दिन भर घर पर रहने लगा, कोई काम नहीं होने से खिन्नता के कारण नित्य ही पत्नी से चिकचिक होने लगी
सुरेन्द्र के खेती और अमराई का काम बेटा देखता और वह पूरे दिन आम की ठंडी छांह में शुद्ध वायु का सेवन करता साथ ही रखवाली भी करता
नरेन्द्र के नौकरी से छूटते ही घर के खर्चे, विदेश से दोनों बेटों की पैसों की मांग दिन ब दिन बढने लगी, सीमित आय में घर चलाना मुश्किल हो गया। तंग आकर उसने बच्चां से कहा मैं अब तुम्हारी मांगे पूरी नहीं कर सकता, यहां क्या पैसे पेडों पर उग रहे हैं ?
सुरेन्द्र के बगीचे में इस बार सौ पेडों पर लगभग दो ट्राली आम हुये। बेटा उन्हें मंडी में बेचकर आया और रुपयों का बंडल पिता के हाथ में रख दिया। इतने रुपये देखकर पिता बोला – बेटे, ये पैसे पेडों पर उगे हैं, इन्हें संभाल कर रखना।
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© सदानंद आंबेकर
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