श्री राजेन्द्र निगम
ई-अभिव्यक्ति में श्री राजेंद्र निगम जी का स्वागत। आपने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा गिरिमा घारेखान जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “नंगे पैर”।
☆ कथा-कहानी – नंगे पैर – गुजराती लेखिका – गिरिमा घारेखान ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆
‘पापा, शांतु काका, गुजर गए।’ चाय का खाली कप लेने के लिए आए, विरल ने बहुत धीमे शरद भाई को कहा।
‘अरे ! कब ? यह तुम्हें किसने कहा ?’ शरद भाई के कांपते हाथों से चाय की प्याली गिर गई। उसके टुकड़े खन खन… की आवाज के साथ चारों ओर बिखर गए।
‘रात्रि नींद में ही हार्ट अटैक हुआ। आप बाथरूम में थे, तब ही उनके घर से फोन आया था।’ विरल ने शरदभाई के पास बैठकर उनकी पीठ पर हाथ घुमाते हुए कहा।
जयश्री तुरंत दौड़ कर झाडू व सूपडी ले कर आ गई। ‘पापा, पैर ऊपर उठा लें, काँच चुभ जाएँगे, अभी आप नीचे मत उतरना।’
‘लेकिन मुझे तो शांतु के घर जाना है।’ शरदभाई की आवाज एकदम किसी बालक जैसी हो गई थी।
‘पापा, लेकिन अभी वक्त है। काका को तो आठ बजे तब निकालेंगे, जब सब आ जाएंगे, उसके बाद ही।’
‘निकालेंगे ?’ शरदभाई ने कहा तो विरल को था, लेकिन उनकी नजर हवा में थी, मानो दूर वे कुछ देख रहे हों।
जयश्री ने विरल की ओर तेज नजरों से देखा।
‘सॉरी पापा, निकालना नहीं, विदा करना है।’ विरल ने पापा की पीठ पर हाथ घुमाते हुए कहा। आधी सदी से भी अधिक पुराना जिगरी दोस्त जब विदा हो जाए, तब पापा की हालत क्या हो रही होगी, यह विरल समझ सकता था। लेकिन इस समय तो उसे पापा के बी.पी. की चिंता हो रही थी|
‘पापा, प्लीज आप पैर ऊपर ले लो न।’ जयश्री ने दूसरी बार कहा। पलंग पर कुछ अंदर खिसक कर शरदभाई ने पैर हवा में लटकाए। उन्हें लग रहा था, मानो इस समय वे बिना किसी आधार के ही हवा में लटक रहे हों। जयश्री काँच के टुकड़ों को इकठ्ठा करती रही। विरल अन्य दो-तीन परिचितों को यह दुखद समाचार देने के लिए फोन करने हेतु अंदर गया।
शरदभाई देर तक अपने लटके हुए पैरों की ओर देखते रहे। वे पैर धीरे-धीरे छोटे होते गए और फिर किसी दस वर्ष के बालक के पैर बन गए। मन ने एक नाव बन कर भूतकाल के किसी बड़े महासागर की ओर प्रयाण किया।
उस दिन शाला से लौटते समय उसकी चप्पल अचानक टूट गई थी। दोपहर का एक बजा था और उस समय रास्ते बहुत तप रहे थे। नंगे पैर चलने की आदत उसे बिल्कुल नहीं थी| कंधे पर बस्ता व हाथ में टूटी चप्पल लेकर वह शाला के नजदीक एक छाँहवाली जगह देख कर खड़ा रह गया था। उसे फ़िक्र थी, कि वह घर अब इस हालत में कैसे जाएगा। तब उसकी ही कक्षा का, लेकिन अन्य विभाग में पढनेवाला शांतु वहाँ से निकला। दोनों के घर पास-पास ही थे. लेकिन शांतु कभी घर के बाहर दिखाई नहीं देता था, इसलिए विशेष पहचान नहीं थी।
शांतु उसे देख कर एकदम खड़ा रह गया था।
‘क्या हुआ ? यहाँ क्यों खड़े हो ? घर नहीं आना है क्या ?’
‘चप्पल टूट गई है। पैर बहुत जलते हैं। क्या करूँ ? घर कैसे जाऊँ ?’ शरद की आवाज रोने जैसी हो गई थी।
‘अरे, इसमें क्या परेशानी है ? मैं तो चप्पल कभी पहनता ही नहीं। देखो, कुछ नहीं होता है।’
शरद की नजर शांतु के पैरों पर गई। वास्तव में उसके पैरों में चप्पल नहीं थीं। उसे समझ नहीं आया कि बगैर चप्पल पहने घर के बाहर पैर कैसे रख सकते हैं ! मोहल्ले में थप्पा या ऐसा ही कोई खेल हो, तब बात अलग है।
‘तुम्हारे पैर जलते नहीं हैं, रास्ते कितने गर्म हैं !’
‘शरद, देखो मेरी तरह करो। जब धूप हो, तब दौड़ो और फिर जब पेड़ या मकान की छाँह आए, तब खड़े रह कर थकान को कम करो। दौड़ना लेकिन सड़क के बीच नहीं, पास की धूल पर दौड़ो, तब पैर कम जलेंगे। दौड़ने की रेस करते चलोगे, तो जल्दी पहुँच जाओगे। चलो, आना है ?’ शांतु इस तरह बोल रहा था, मानो बगैर चप्पल के चलना ही स्वाभाविक है।
शरद कुछ झिझका। लेकिन शांतु के बगैर जाना संभव भी नहीं था। उसने शांतु के साथ दौड़ना शुरू किया। पैर बहुत जलते, उसके पहले ही छाँह मिल जाती थी। अधिक परेशानी नहीं हुई। घर पहुँच गए।
दूसरे दिन चप्पल थी, लेकिन फिर भी वह पिछले दिन की जगह पर ही खड़ा रहा। शांतु ने उसे देखा और वह भी खड़ा रह गया।
‘क्यों ? आज तो चप्पल पहनी है !’
‘हाँ, लेकिन तुम्हारे साथ दौड़ना है। मजा आता है। आज तो मैं तुमसे भी तेज दौडूंगा।’
चप्पल पहन कर दौड़ना उसे सुविधाजनक नहीं लगा। इसलिए शरद ने चप्पल हाथ में ले लीं और फिर प्रतियोगिता में दौड़ने लगा। शांतु शायद जानबूझकर धीमे दौड़ रहा था। शरद को जीतने में मजा आया, मात्र उस दिन ही नहीं, बल्कि रोज।
शाला में परीक्षा पूर्ण हुई। परिणाम के दिन शरद शाला से बाहर आया, उसका चेहरा लटका हुआ था। उसने शांतु को देखते ही कहा, ‘आज दौड़ना नहीं है, चाहे घर देर से ही पहुँचे।’
‘क्यों, क्या हुआ ?’
‘गणित में पास नहीं हुआ।’ आँखों में आएँ आँसू गाल पर टपकें, उसके पहले ही शरद ने कमीज की बाँह से उन्हें पोंछ लिया।
शांतु गंभीर हो गया। ‘अब तुम्हारी माँ नाराज होंगी ?’
‘नहीं, पिताजी। अब वे मेरी ट्यूशन कराएँगे, जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।’
फिर उसे शांतु के परिणाम पूछने का याद आया। ‘तुम्हारा क्या परिणाम आया ?’
‘मेरा तो हर वक्त पहला नंबर आता है।’ शांतु के इस उत्तर से मानो अचरज हुआ हो|
‘तुम्हें कौन पढ़ाते हैं- पिताजी या माँ ?’
‘मैं तो स्वयं ही पढता हूँ। मेरी माँ तो…।’ शांतु ने अधिक बात करने के स्थान पर दौड़ना शुरू कर दिया था।
दूसरे दिन शरद पहली बार शांतु के घर आया था। उसे आश्चर्य हुआ – कितना छोटा घर था ! और वह भी खाली-खाली। शांतु से उम्र में कुछ बड़ी बहन रसोईघर में कुछ पका रही थी। शांतु उसके छोटे भाई को पढ़ा रहा था। शरद को देख कर वह तुरंत खड़ा हो गया था।
शरद घर में चारों ओर देख रहा था। खूँटियों पर गरीबी लटकी हुई दिखाई दे रही थी। ‘गरीब इंसान का घर ऐसा होता है ?’ शरद सोचने लगा। पिताजी इसके साथ पढ़ाई करने के लिए अनुमति देंगे ? लेकिन उसे शांतु बहुत पसंद था। कल प्रार्थना-कक्ष में सामान्य सभा में आचार्यजी ने उसकी कितनी तारीफ़ की थी ! ‘शांतनु मेहता ऐसा, शांतनु मेहता वैसा…|’ शांतनु मेहता को खड़ा कर उन्होंने जब आगे बुलाया, तब मालूम हुआ कि शांतनु मेहता तो उसका मित्र शांतु था।
शरद ने शांतु से पूछ ही लिया, ‘तुम मेरे घर पढ़ाने के लिए आओगे ? मुझे ट्यूशन के सर से नहीं पढ़ना। पिछले वर्ष आते थे, तो मुझे फुट-पट्टी से मारते थे।’ शांतु ने कुछ विचार कर जवाब दिया था, ‘मेरे पिताजी अभी मील गए हैं, उनसे पूछ कर बताउँगा।’
दूसरे दिन से रोज शाम को वह शरद को पढ़ाने के लिए आने लागा। धीरे-धीरे शरद को मालूम हुआ कि उसके मित्र की माँ तो उसके छोटे भाई को जन्म दे कर ही भगवान के पास चली गई थी। घर का काम करने के लिए उसकी बहन ने पढ़ाई छोड़ दी थी और पिताजी भी बीमार रहते थे। वे कभी मील जाते थे और कभी नहीं भी जाते थे। कुछ दिनों के बाद शरद को यह भी मालूम हुआ कि शांतु के पास यूनिफार्म के लिए भी सिर्फ एक ही कमीज थी, जिसे वह रोज शाला से आकर धो कर सुखा देता था।
शुरू- शुरू में शरद की माँ रोज शांतु को नाश्ता देती थी, लेकिन शांतु उस नाश्ते की ओर देखता भी नहीं था। उसका जवाब रोज लगभग एक ही रहता था, ‘मैं घर से खा कर ही निकलता हूँ, मौसी मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं है।’ उसके जाने के बाद माँ फिर पिताजी को कहती थीं, ‘देखा कितना स्वाभिमानी लड़का है ! गरीब है, लेकिन खानदानी कहाँ जाएगी ?’
दीवार पर लगी घड़ी में एक बजने की टकोर लगी और शरदभाई की नजर घड़ी पर गई। घंटे का काँटा सात व आठ के बीच था और मिनट का काँटा छह के आँकड़े पर स्थिर हो गया था। सेकंड का काँटा तेजी से घूम रहा था और वह तीव्र गति से दोनों से आगे बढ़ रहा था। शरदभाई की नजर उसके साथ-साथ गोल-गोल घूमने लगी। दिमाग में चल रही टक-टक दीवार पर लगी घड़ी की टक-टक के साथ ताल मिला रही थी। मन की यह घड़ी कैसी कर्कश आवाज में टकोर बजा रही थी ?
वह अनुभव भी कर्कश ही था न ! उस दिन शांतु की खानदानी कसौटी पर आ गई थी। शरद के पिताजी की महँगी घड़ी कहीं गुम हो गई थी। घर में बहुत खोज करने के बाद वे गुस्से में बोले थे, ‘मैंने तुम्हारी माँ को इंकार किया था, ऐसे लड़कों को घर नहीं बुलाएँ। जरूरत इंसान से सब कुछ करा लेती है, चोरी भी करा लेती है।’ फिर माँ पर गुस्सा हुए थे। ‘तुम बहुत तारीफ़ करती थी न ? अब देख ली उसकी खानदानी ?’ फिर शरद व उसकी माँ ने बहुत इंकार किया, लेकिन तब भी शांतु जब शाम को आया, तब उन्होंने उससे पूछ ही लिया, ‘ए लड़के, कल से मेरी घड़ी घर में दिखाई नहीं दे रही है, तुमने…’ फिर उनकी नजर शरद की गिडगिडाती हुई आँखों पर पड़ी इसलिए आखिर में उन्होंने ‘ली है ?’ शब्दों के स्थान पर ‘देखा है ?’ में तब्दील कर दिया।
शब्द बदल दिए थे, लेकिन लहजा नहीं बदला था। जो काम घर में पहने जा रहे पैबंद लगी कमीज या बाजरी की सूखी रोटियाँ न कर सकीं, वह काम पिताजी द्वारा न कहे गए शब्दों ने कर दिया। वे अदृश्य शब्द तलवार की तरह हवा में तैरते रहे। शांतु का चेहरा क्षण भर जमे हुए आँसुओं की तरह हो गया। फिर वे आँसू पिघल कर उसकी आँखों में चमकने लगे। शरद ने पहली बार शांतु की आँखों में आँसू देखे थे। वह दौड़ता हुआ अपने घर चला गया। उसके बाद पिताजी की घड़ी तो उनकी गादी के कोने से नीचे मिल गई। सोते समय घड़ी निकाल कर वे उसकी जगह रखना भूल गए, अतः गादी का कोना ऊँचा कर वहाँ रख दी और फिर उसे भूल गए|
उसके बाद शरद ने बहुत कहा, लेकिन शांतु ने फिर कभी अपने पैर उसके घर में नहीं रखे। शरद की पढ़ाई की अच्छी प्रगति देख, उसके पिताजी ने उसे शांतु के घर पढ़ाई के लिए जाने की इजाजत दी थी। दोनों ग्यारहवीं कक्षा तक साथ ही पढ़े। शांतु ने बहुत मेहनत की थी| सेकेंड्री का उसका परिणाम बहुत अच्छा आया था। लेकिन उस परिणाम को देखे बगैर ही उसके पिताजी गुजर गए। यह तो अच्छा था कि इसके पहले ही उन्होंने अपनी बेटी का विवाह कर दिया था। शांतु ने लंबी छुट्टियों में राशन की दुकान में अनाज भरने की नौकरी की और कॉलेज का शुल्क इकठ्ठा कर लिया था। हालाँकि बाद में जब तक वह पढ़ा, तब तक उसे छात्रवृत्ति मिलती रही। शरद को और अधिक अच्छे कॉलेज में पढ़ाने के लिए उसके पिताजी ने उनके भाई के पास मुंबई भेज दिया था। पिताजी के साथ जो वैचारिक संघर्ष हो जाते थे, उन्हें टालने के लिए वह छुट्टियों में बहुत कम वक्त के लिए आता। इसलिए शांतु से मिलना मुश्किल से ही संभव हो पाता था। शांतु सुबह कॉलेज चला जाता था, दोपहर नौकरी करता था और शाम को छोटे भाई को पढ़ाता और घर के काम करता था। शरद भी अपने बड़े कुटुंब में सब से मिलने-जुलने में व्यस्त रहता था।
बी.ए. करने के बाद शरद मुंबई में ही बस गया और शांतु को अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई। हर दो-तीन वर्ष में उसका तबादला होता रहता था। ऐसा हो ही न पाता कि दोनों मित्र उनके पुराने गाँव में कभी मिलें। शरद को उसके समाचार मिलते रहते थे। शांतु को अच्छी पत्नी मिली थी और यह भी सुना था कि उसके बच्चे अच्छी पढ़ाई कर रहे थे। यह सब जानकार शरद खुश रहता था।
फिर निवृत्ति के बाद दोनों मित्र अपने गाँव में स्थाई हो गए। उन्हीं पुराने घरों में रहने के लिए। हालाँकि शांतु का घर अब पुराना नहीं रहा था। उसने उसे नया रूप-रंग दे दिया था। दोनों मित्र रोज शाम को मिलते और फिर टहलने के लिए जाते। किसी ठेला-गाड़ी पर चाय पीते और कभी किसी होटल पर जा कर नाश्ता आदि करते और बगीचे में जा कर गपशप करते। शरद के बहुत कहने के बावजूद शांतु ने कभी उसके घर में कदम नहीं रखा था। वह कहता, ‘दोस्त, मुझे उसके लिए आग्रह न कर। उस घाव को वैसा ही रहने दो, उस रिस रहे घाव ने ही मुझे सतत पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। इसी ने मुझे बहुत मेहनत कर नौकरी में आगे बढ़ने, अच्छा कमाने, मेरे बच्चों को उज्जवल भविष्य प्रदान करने की उमंग को सदैव जीवंत रखा। अन्यथा मैंने ग्यारहवीं के बाद कहीं क्लर्क की नौकरी पर काम करना शुरू कर दिया होता।’
शरद हाथ जोड़ कर कहता, ‘लेकिन यार… इतने वर्षों के बाद अब भी ! मेरे पिताजी की भूल के लिए, तुम कहो उतनी बार मैं माफी मांगने के लिए तैयार हूँ।’
‘नहीं यार, दोस्ती में यह सब नहीं होता है।’ शांतु फिर शरद का हाथ पकड़ लेता। ‘बस तुम्हारे जैसे मित्र के साथ वक्त बिताने के लिए ही तो मैं इतने वर्षों के बाद अपने वतन आया हूँ। जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दो।’
शरदभाई ने शांतु का हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ लंबा किया और विरल ने वह हाथ थाम लिया।
‘पापा, आठ बजने वाले हैं, चलो चलते हैं। आप कुर्ता पहन लें।’
शरदभाई ने कुर्ता पहना और बाहर जाने के लिए निकले। विरल की नजर उनके पैरों पर पड़ी। ‘पापा, चप्पल तो पहनो !’
‘आज नहीं पहनना है। अंतिम बार अपने मित्र के साथ अब नंगे पैर चलना है।’ शरदभाई ने लंबे कदम बढाते हुए कहा। विरल कुछ भी नहीं समझा, वह तो बस उनके क़दमों के पीछे चलता रहा।
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मूल गुजराती कहानीकार – गिरिमा घारेखान
संपर्क – 10, ईशान बंगलोज, सुरधारा- सत्ताधार मार्ग, थलतेज, अहमदाबाद- 380054 मो. 8980205909.
हिंदी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम,
संपर्क – 10-11 श्री नारायण पैलेस, शेल पेट्रोल पंप के पास, झायडस हास्पिटल रोड, थलतेज, अहमदाबाद -380059 मो. 9374978556
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
एक उत्कृष्ट रचना का उतना ही उत्कृष्ट अनुवाद।
अच्छा लगा।