हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कथा ♣ खुल जा सिमसिम! ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ बाल कथा खुल जा सिमसिम! ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी 

‘मिल गया! पन्द्रह का एक बता रहा था। बीस में दो दे दिया। यानी दस की एक फूल गोभी!’ बेनीबाबू जंगफतह करनेवाले सेनापति के अंदाज में खुश हो गये। आलू, बैगन, अदरक, छीमी एवं सर्वोपरि गोभी से भरे झोले को सँभालते हुए वे जल्दी जल्दी घर लौट रहे थे।

दोनों तरफ सड़क पर सब्जीवाले बैठे हैं। कोई हाँक रहा है, ‘बीस में डेढ़, टमाटर ढेर।’ उधर ठेले के पास खड़ा फलवाला नारा बुलंद कर रहा है, ‘बहुत हो गया सस्ता, अमरूद ल ऽ भर बस्ता!’

तार पर बैठे कपिकुल सोच रहे हैं – मौका मिले तो झपट कर अमरूद उठा लावें। सौ फीसदी फोकट में।

वैसे, भाशा विज्ञान का एक प्रश्न है – पेड़ की शाखा पर विचरने के कारण अगर बंदरों का नाम शाखामृग पड़ा, तो आजकल के टेलिफोन और बिजली के तारों पर चलने के कारण उनका नाम तारमृग भी क्यों न हो?

बाबू बेनीपूरी ने ख्याल नहीं किया – भीड़ में कोई उनके पीछे पीछे चलने लगा था। उनको ‘फॉलो’ कर रहा था एक विशालकाय काला साँड़-‘बच्चू, तू अकेले अकेले सब खायेगा? हजम नहीं होगा बे। एक फूलगोभी तो मुझे देते जा।’ भच्च्…भच्च्…..उसके नथूने फूलने लगे  ……

ध्वनि से चौंककर बेनीपुरी ने पीछे मुड़कर देखा – अरे सत्यानाश हो! झोले में पैर भरकर भागे। कुछ कुछ उड़ते हुए ……

‘अबे भाग कहाँ रहा है? सरकार का टैक्स है, पुलिस गुंडे – सबका टैक्स है। हमारा टैक्स नहीं देगा? चल गोभी निकाल।’ साँड़ दौड़ा उनके पीछे …..

बेनीबाबू भागे आगे -‘ना मानूं, ना मानूं, ना मानूं रे! दगाबाज तेरी बतिया ना मानूँ रे!’

‘अबे तुझे हजम नहीं होगा। तेरे पेट से निकलेगी गंगा। तेरा खानदान न रहेगा चंगा।’ सांड को गुस्सा आ गया। विलम्बित से द्रुत लय में उसके कदम चलने लगे ……

एक राही ने कहा, ‘भाई साहब, भागिए -’

दूसरे ने यूएनओ स्टाइल में समझौता करवाना चाहा, ‘एक गोभी उसके आगे फेंक कर घर जाइये।’ यानी संधिपत्र पर हस्ताक्षर।

जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? ऐ दिल, कहाँ तेरी मंजिल ? तड़पने लगे बेनीबाबू। तभी ध्यान आया दाहिने बिस्नाथ गल्ली के ठीक सामने पुलिस चौकी  है। और कोई न बचाये, – खाकी, अपनी रख लो लाज! बचा लो मुसीबत से आज।

सीन नंबर टू। दौड़ते हाँफते हुए हाथ में थैला लटकाये बेनीबाबू का थाने में प्रवेश ……

सुबह सुबह नहा धोकर बलीराम दरोगा अंगोछा यूनिफार्म में उस समय हनुमानजी की तस्वीर के सामने दीया घुमा रहे थे – ‘श्री गुरुचरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि ……’

थम गये उनके हाथ,‘अरे रे रे – इ का हो रहा है? तुम – आप कौन हैं? ए पाँड़ेजी, इ कौन अंदर दाखिल हो गया? देखिए तो -’

‘वो साँड़ मुझे फॉलो कर रहा है, सर।’

‘साँड़ ? फॉलो? वो कोई गुंडा बदमाश होता तो कोई बात होती।’

‘अरे साब, इ तो गुंडा बदमाश से भी बीस नहीं, बाईस है।’

बाहर से पाँड़ेजी की मुनादी,‘लीजिए, उ पधार चुके हैं।’

इसी बीच दरोगा के ऑफिस  के अंदर काला पहाड़ का प्रवेश।

चौंक कर बलीराम ने दीया वहीं टेबुल पर रख दिया। ‘प्रभु, जब तुम छलांग  लगा कर सागर लाँघ सकते हो, तो आज अपनी आरती खुद नहीं कर लीजिएगा? टोटल हनुमान चालीसा खुदे नहीं कंप्लीट  कर लीजिएगा ?’

इतने में साँड़ झपटा बेनीपुरी की ओर। वह छुप गये दरोगा के पीछे। शुरु हो गया म्युजिकल चेयर रेस। टेबुल के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं तीनों। सबसे पहले बेनीपुरी, उनके पीछे बलीराम, और दोनों  को खदेड़ता हुआ काला पहाड़….

‘अरे पाँड़ेजी इसको भगाओ। नहीं तो तुम सबको लाइन हाजिर कराऊँगा।’ मिलिट्री स्टाइल में बलीराम का आर्तनाद।

‘सा‘ब, हम का करें? मामूली चोर उचक्के तो हाथ से छूट जाते हैं। इ तो महादेव का नंदी है। कैसे सँभाले?’ पाँड़ेजी की सत्यवादिता।

उधर झूम झूम कर, घूम घूम कर चल रहा है तीनों का चक्कर। बीच में मेज को घेर कर ……

दरोगा ने आदेश दिया, ‘हवालात का दरवाजा खोल कर इसे अंदर करो।’

‘हमलोग दरवाजा खोल रहे हैं, हुजूर। आप अंदर से उसे बाहर हाँकिए।’

‘यह तो मुझे दौड़ा रहा है। मैं कैसे हाँकूंगा? इस आदमी को यहाँ से निकाल बाहर करो।’

‘आपही लोग जनता की रक्षा नहीं कीजिएगा, तो कौन हमें बचायेगा?’

‘निकलते हो कि -’बेनीपुरी पर बलीराम झपटे कि झोला समेत उसे निकाल बाहर करें। साँड़ लपका उनपर। तुरंत बेनीपुरी ने टेबुल के नीचे आसन जमा लिया। हाथ में झोला सँभाले हुए।

साँड़ भौंचक रह गया। गोभीवाला बाबू गया कहाँ ? उसे दरोगा पर गुस्सा आ गया – कहीं इसी ने तो गोभी नहीं खा ली? खट्…खट्…..खट्….. वह बलीराम के पीछे, ‘छुप गये तारे नजारे सारे, ओय क्या बात हो गयी! तुमने गोभी चुरायी तो दिन में रात हो गयी !’

बलीराम के ऑफिस  के सामने हवालात का दरवाजा था खुला। वह पहुँचे अंदर, ‘अरे पाँड़े, हवालात का दरवाजा बंद करो। जल्दी।’

पाँड़े ने तुरन्त आदेश का पालन किया।

साँड़ बंद हवालात के सामने फुँफकारने लगा, ‘हुजूर, अब खोलो दरवाजा। मैं प्रजा हूँ, तुम हो राजा। भूखे की गोभी मत छीनो। सुना नही क्या अरे कमीनो?’

इसके बाद क्या हुआ, मत पूछिए। दूसरे दिन अखबार में इस सीन की फोटो समेत स्टोरी छपी थी।

हाँ, इतना बता सकता हूँ कि मिसेज बेनिपुरी को दोनों फूलगोभी मिल गयी थीं। सही सलामत!

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈