श्री अशोक शर्मा

 

☆ पुस्तक चर्चा  ☆ “बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी” – सुश्री इन्दिरा किसलय ☆ चर्चाकार –  श्री अशोक शर्मा ☆

पुस्तक – बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी

कृतिकार—इन्दिरा किसलय

समीक्षक—अशोक शर्मा चण्डीगढ़

प्रकाशक—अविशा प्रकाशन

मूल्य –150/-

पृष्ठ–100

मनोमंथन को विवश करती — “बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी” – श्री अशोक शर्मा ☆

“बंद किवाड़ों पर दस्तक देती आजादी “शीर्षकवाही कृति में लेखिका “इन्दिरा किसलय” के 40 आलेख संग्रहित हैं। उनकी दो दशक की साहित्यिक यात्रा के मनपसंद पड़ाव कह सकते हैं इन्हें। जो यथासमय विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।

इन्दिरा किसलय

उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि संग्रह के अधिकांश लेख स्त्री सशक्तिकरण पर केन्द्रित हैं।

उन्होंने एक ओर पराधीनता के दृश्य उकेरे दूसरी ओर आजादी के सम्यक प्रयोग से प्राप्त ऊँचाइयों को भी अंकित किया है।

लेखिका ने अन्य विषयों पर भी कलम की आजादी का भरपूर उपयोग किया है फिर वह राजनीति, धर्म अध्यात्म, गांधीवाद, पर्यावरण तथा युद्ध ही क्यों न हो, उनकी जाग्रत संचेतना से जुड़कर जानकारियों के साथ भावभीना स्पर्श भी दे जाते हैं। पौराणिक कथानकों की नवतम व्याख्या भी संलग्न है। कहने की जरूरत नहीं कि हर समसामयिक संदर्भ में शाश्वत प्रवाह की गूँज छिपी होती है।

“झरोखा कान्हा की यादों का” एवं “रिमझिम बरसे हरसिंगार ” जैसे संस्मरणात्मक ललित लेख एक मधुर गंध फिजां में घोल देते हैं। दुग्ध शर्करा योग की तरह।

पाठक, लेखिका की संवेदनशीलता के साथ हर दृश्य देखता है। यह अनुभूति आम सैलानी के लिये असंभव है। पढ़ते पढ़ते अर्थ कहीं गुम हो जाते हैं। कितने दृश्य आँखों के सामने से गुजर जाते हैं। कल्पना को यथार्थ के साथ पिरोना कोई इन्दिराजी से सीखे। सितारे ऊँचाई से थककर पेड़ों के पत्तों पर आकर बैठ जाते हैं।

आलेख पढ़ते पढ़ते कभी लगेगा कि आप कोई कविता पढ़ रहे हैं, कभी कोई पेंटिंग देख रहे हैं, या फिर लेखिका के साथ चर्चा कर रहे हैं। दिमाग कहीं खो जाता है, मन मस्तिष्क पर हावी होकर गुनगुनाने लगता है।

लेखकों का शुतुरमुर्गी आचरण हो या ज्वालाग्राही लेखन से डरती हुई सियासत या उत्सव, पर्यावरण ध्वंस या यूक्रेन-रूस, इज़राइल फिलीस्तीन युद्ध के रक्तरंजित दृश्य, लेखिका की नज़र से ओझल नहीं हो पाते।

मुखपृष्ठ पर अंकित चित्र संकेतित करता है कि प्रकृति के समग्र दर्शन का सौभाग्य मिलता है, अगर मन-मस्तिष्क के द्वार खुले हों।

भाषा तो भावना के संकेतों पर सिर झुकाए हुये चली आती है। पूरे मन से लिखे गये आलेख प्राणों के स्पंदन और शिल्प सौंदर्य की निरायास गवाही देते हैं। उन्होंने पंजाबी और अंग्रेजी शीर्षक देने से भी परहेज नहीं किया है। कठिन उतने ही रोजमर्रा की बोली के शब्द भी आसानी से मिल जाते हैं।

अविशा प्रकाशन की यह किताब पाठकों को मनोमंथन को विवश तो करेगी ही, सुमन विहग के पंखों का रंग ऊंगलियों पर लपेट देगी इसी विश्वास के साथ—

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समीक्षक – श्री अशोक शर्मा

चंडीगढ़

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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