डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’
☆ ‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद – कवयित्री : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’ ☆
पुस्तक : लम्हों से संवाद
कवयित्री : डॉ• मुक्ता
प्रकाशक : वर्डज़ विग्गल पब्लिकेशन, सगुना मोर, दानापुर, पटना
पृष्ठ. सं• : 114
मूल्य. : 200 रुपए
‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद
मानव जीवन अनुभवों को लेकर चलता है। डॉ. मुक्ता के निजी अनुभव धीरे-धीरे विस्तृत होते-होते दर्शन में प्रविष्ट होने का आनंद और लुफ़्त उठाते हैं तथा बंजर जमीन पर पीर के फूल खिलाने का उद्यम रचते हैं। संवेदनशील मनुष्य हर क्षण, हर लम्हा मनुष्यत्व की रक्षा करता है, क्योंकि मनुष्य ही देव, दर्शन और इतिहास है, तभी तो कवयित्री डॉ. मुक्ता को भी ‘शब्द-शब्द समिधा’ में कहना पड़ा ‘सोहम्’। दरअसल यह आत्मीयता है, जो किसी-किसी को महसूस होती है, जो बेचैनी भी पैदा करती है। विपत्तियों में यादास्त किस तरह पतवार थामती है, खुद को समर्पित कर कैसे कविता या नज़्म आगे बढ़ती है, यह कहने को कवयित्री डॉ. मुक्ता प्रस्तुत होती हैं काव्य संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ को लेकर, एक कादम्बरी वाक्य में देखिए वह क्या कहती हैं- उम्र गुजर जाती है जिंदगी ख्वाबों में ख़ुद से कभी-कभी बेवजह मुस्कुराहट की कोशिश करते, जीने की वजह से गुनहगार, मरु-सी जिंदगी, बड़ी बेवफा, खफ़ा-सी, दरकते रिश्ते, मोह के धागे कहाँ खो जाते हैं पता ही नहीं चलता, पल-पल भरमाता सुकून कहाँ मिलता है, तमाशा बन शाश्वत सत्य भी बेवजह साहिल को पाने की गुफ़्तगू, इंसान की कशमकश, आतंक के साये में न्याय की गुहार में इम्तिहान, इत्मीनान, अदब, धीर बंधाए, अनुभव करता है- जिंदगी क्या है? उठ रहे सवाल, आंधियों का रेला, कैसा चलन हो गया आज, तन्हा-सी झंझावतों में फंसी जिंदगी को कैसे कह दे मलाल है, नसीब है, फितरत है- नहीं आसान है, काश! अक्सर, स्वाँग, फांसले उजास के, दस्तूर-ए-दुनिया, मन को समझाए कैसे, कहीं दूर चल और खुद से जीतने की ज़िद में, नहीं वाज़िब, क्योंकि बच्चे बड़े सयाने हो गए हैं, सोचो! क्या वे दिन आएंगे, पछताना पड़ेगा नहीं, शब्द अनमोल हैं बात ऊंची रख हाले-दिल, ख़लिश, जीना है मुझको ये सिख लीजिए, नहीं वाज़िब जनाजा, दिल नादान, ‘सोहम्’ पाक रिश्ता है, बस! उसे उन्मुक्त हो जाने दो, अन्तर्निनाद, मुकाम के लिए एकला चलो रे, जीने की राह पर, साहिल को पा जाएगा। कवयित्री डॉ. मुक्ता की ‘उम्र गुज़र जाती है’ नज़्म देखिए-
तूफ़ान तो गाहे-बेगाहे आते रहते हैं जिंदगी में
कश्ती को सागर तक पहुँचाने में उम्र गुजर जाती है
मन से क्षुब्ध होने पर सुख या दु:ख अनुभव होता है और शान्त मन का असुख-अदुःख की अवस्था अनुभूति है। तभी तो भावों के उद्दीप्त होने पर सुखानुभूति तो उद्बुद्ध होने पर दुःखानुभूति होती है। अतः हर प्रकार की मनोदशा में प्रिय-अप्रिय होने का तत्त्व विद्यमान रहता है। मगर, मृग-तृष्णा के पीछे भागना मूर्खता का विषय है। कवयित्री कहती है कि जिंदगी दर्द भी है और दवा भी, इसमें लहरें उठती रहेंगी। जब शांत जल में मात्र कंकर डालने से क्षोभ उत्पन्न हो जाता है तो फिर उद्दीपक के प्रभाव से शांत मन में विक्षोप या आंदोलन उत्पन्न होना संभाव्य है। कवयित्री कहती है मानव को समय की धार, जिंदगी के फ़लसफ़े, संवेग (क्षुब्द मनोवृत्ति) को समझना होगा। डॉ. मुक्ता ‘मरुस्थल में मरूद्यान’ की संकल्पना का पाठ लिखती हैं-
मृग-तृष्णा उलझाती है, मत दौड़ उसके पीछे मन बावरे !
ख़ुदा तेरे अंतर्मन में बसता, उस में झाँकना भी ज़रूरी है
जब मनुष्य मन की वीथियों से बाहर आ जाएगा, तो निश्चय ही अँधेरा छंट जाएगा, धरा सिंदूरी हो जाएगी। जिंदगी की डगर पर खुद पर भरोसा कर मनुष्य को मिथ्या जग में एकला ही चलना होगा-
अपनी ख़ुदी पर रखो भरोसा
और बना लो इसे ज़िंदगी का मूलमंत्र रे
यह ज़िंदगी है दो दिन का मेला
यहाँ कोई नहीं किसी का संगी-साथी रे
कवयित्री की नज़्में जीवन के विविध रंगों, विविध स्थितियों, मानव-मन की विविध दशाओं, हृदय की विभिन्न संवेदनाओं को परिभाषित करती हैं, विविध चित्र उपस्थित करती हैं, समाधान सम्मुख रखती हैं, व्यक्तित्व की सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप-रेखाओं को प्रस्तुत करती हैं। जीवन के सत्यों का उद्घाटन करती हैं, साथ ही सामयिक परिस्थितिओं और विद्रूपताओं की ओर संकेत करती हुई कवयित्री जिंदगी का फ़लसफ़ा लिखती हैं; यथा-
ऐ मन! सीख ले तू जीने का हुनर
हम तो तेरे तलबगार हो गये
कवयित्री आत्म-प्रवचन्ना से मुक्त होकर आत्म-विश्लेषण के लिए प्रेरित करती है। उसके निज़ाम में सब अच्छा ही होता है जो जीवन में समूचा सार-तत्त्व ‘जीने की राह पर’ सब गिला-शिकवा को भुलाकर आगे बढ़ता है। अर्थात ‘स्व’ में ‘पर’ का विसर्जन ही जीवन का सार-तत्त्व है-
यह दुनिया है मुसाफ़िरखाना
सबने अपना किरदार है निभाना
इस जहान से सबने है लौट जाना
तू हर पल प्रभु का सिमरन कर
90 नज्मों के इस संग्रह में कवयित्री किसी विशिष्ट भाव-बोध की गिरफ्त में नजर नहीं आती, बल्कि उनकी काव्यात्मक सोच विभिन्न गवाक्षों और गलियारों से गुजरती है और जहां कहीं भी कोई लम्हा उन्हें स्पंदित करता है, वह बड़ी चतुराई से उसे चुराकर अपने काव्य-कौशल द्वारा सुघड़ ढंग से अपनी कविता में पिरो देती हैं। एकांतलक्षिता के गुलमुहरी भाव-कुंजों से संपृक्त, संवेगात्मक कटु यथार्थ को अपनी कविता में सलिखे से समोने में कवयित्री के संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ की नज़्में काव्य-रचना की रहस्यमयी प्रक्रिया, सूक्ष्म निरीक्षण और संभाव्य कल्पना और यथार्थ-बोध से परांतग्राह्य बनकर, नितांत निजी काव्यगत अनुभव ‘स्वान्तःसुखाय’ और ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की बानगी प्रस्तुत कर स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करती हैं-
समय कभी थमता नहीं, निरंतर बदलता रहता
सृष्टि का क्रम पल-पल, नव-रूप में प्रकट होता रहता
स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करता, अनुभव कीजिए
कवि दार्शनिक होता है, पर दर्शन को सहज रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती रहती है, जिसमें डॉ. मुक्ता उत्तीर्ण नज़र आती हैं। ‘शाश्वत सत्य’ से पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
ज़िंदगी में मनचाहा होता नहीं, तनिक विचार करें
जो होता है, वह कभी भाता नहीं, तनिक विचार करें,
स्व-पर से ऊपर उठना है लाज़िम
जो होना है, अवश्य होकर रहता, तनिक विचार करें।
निष्कर्षतः कवयित्री अपनी व्यथा, वेदना, पीड़ा को अपनी रचनाओं में समाविष्ट करती हैं और उनका दर्द, दुःख, बेचैनी, जिज्ञासा ही उनकी रचनाओं का आधार बने हैं। किंतु किसी भी कवि/कवयित्री की खासियत यह होती है वह व्यक्तिगत संदर्भ का सामान्यीकरण करके ही प्रस्तुत करता है। चूंकि कवि रस-स्रष्टा से पहले रस-भोक्ता है, परंतु वह स्वार्थी की तरह रस का अकेला उपभोग नहीं करता, बल्कि ‘स्व’ को विस्तृत और व्यापक बनाकर ‘पर’ का तादात्म्य बैठा देता है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसा करने के कारण रचनाएँ पढ़ने में अधिक रुचिकर और आकर्षित करने वाली भी बन जाती हैं। डॉ. श्यामसुंदर का मत है कि कवि और पाठक की चित्तवृत्तियों का एकतान, एकलय हो जाना साधारणीकरण है। डॉ. मुक्ता ने समसामयिक युग के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए बदलते संदर्भो की गहनता से पड़ताल कर, ईमानदारी और सद्भावना के साथ साधारणीकरण के मंत्र को जपते ‘सर्तक-सावधान-समाधान’ रूपी विभिन्न रूपों की सुंदर प्रस्तुति दी है। यही कवयित्री चित्त (मन) का साधारणीकरण है। ऐसा ही एक प्रयास डॉ. मुक्ता ने ‘कोशिश’ नज़्म में किया है-
बढ़ न जायें दिलों के फ़ासले इस क़दर
ज़रा क़रीब आने की कोशिश तो कीजिए
कहीं छा न जाये मरघट सी उदासी
अंतर्मन में झांकने की कोशिश तो कीजिए
काव्य शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से मौलिक और प्रखर काव्य सृष्टि हुई है। नज़्में चित्रमयी, लाक्षणिक भाषा और रूपकों से सम्पन्न हैं तथा प्रस्तुत-अप्रस्तुत प्रतीकों का आश्रय लिए हुए हैं। विशेषतः हिंदी तत्सम, उर्दू और फ़ारसी शब्दों का मणिकंचन प्रयोग नज़्मों की नब्ज़ बने हैं।
शुभाकांक्षी
© डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’
साहित्यालोचक एवं अनुवादविद
चरखी दादरी, हरियाणा, मो. 81999-29206
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈