सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल वे हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….2 पर आलेख ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 8 ☆
☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….2 ☆
शुरू में शूटिंग दादर के एक फ़ोटो स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे। पत्नी की सहायता से छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। आठ महीने की कठोर साधना के बाद दादासाहब के द्वारा पहली मूक फिल्म “राजा हरिश्चंन्द्र” का निर्माण हुआ। यह चलचित्र सर्वप्रथम दिसम्बर 1912 में कोरोनेशन थिएटर में प्रदर्शित किया गया। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में प्रिमीयर हुई और 3 मई 1913 शनिवार को कोरोनेशन सिनेमा गिरगांव में पहली भारतीय फ़िल्म का प्रदर्शन हुआ।
पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, बम्बई के कला मर्मज्ञ और सिनेप्रेमी के कारण फिल्म जबरदस्त हिट रही। फालके के फिल्मनिर्मिती के प्रथम प्रयास के संघर्ष की गाथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म ‘हरिश्चंद्राची फॅक्टरी’ 2009 में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया।
इस चलचित्र के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में “भस्मासुर मोहिनी” और “सावित्री” बनाई। 1915 में अपनी इन तीन फिल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए। लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई।
उन्होंने राजा हरिश्चंद्र (१९१३) के बाद मोहिनी भास्मासुर बनाई जिसमें दुर्गा बाई कामत पार्वती और कमला बाई गोखले मोहिनी के रूप में पहली महिला अदाकारा बनीं, सत्यवान सावित्री (१९१४) भी बहुत सफल रही।
तीन फ़िल्मों की सफलता से उन्होंने सभी क़र्ज़ चुका दिए। उसके बाद भी उनकी फ़िल्मों की माँग बनी होने से उन्होंने लंदन से 30,000 रुपयों की नई मशीन लाने का विचार किया। वे 1 अगस्त 1914 को लंदन पहुँच कर बायोस्कोप सिने वीक़ली के मालिक केपबर्न से मिले। उन्होंने फाल्के की फ़िल्मों की स्क्रीनिंग की व्यवस्था कर दी। फ़िल्मों के तकनीक पक्ष की बहुत प्रसंश हुई। हेपवर्थ कम्पनी के मालिक ने उन्हें भारतीय फ़िल्मों को लंदन में फ़िल्माने का प्रस्ताव दिया, वे सभी खर्चो के साथ फाल्के को 300 पौण्ड मासिक भुगतान के साथ लाभ में 20% हिस्सा देने को भी तैयार थे लेकिन फाल्के ने उनका प्रस्ताव नामंज़ूर करके अपने देश में ही फ़िल्म बनाना जारी रखना सही समझा। वॉर्नर ब्रदर से 200 फ़िल्म रील का प्रस्ताव स्वीकार किया तभी प्रथम विश्वयुद्ध भड़क गया और उनकी माली हालत ख़स्ता हो गई।
उस समय देश में स्वदेशी आंदोलन चल रहा था और आंदोलन के नेता फाल्के से आंदोलन से जुड़ने को कह रहे थे इसलिए अगली फ़िल्मों बनाने हेतु धन की ज़रूरत पूरी करने के लिए उन्होंने नेताओं से सम्पर्क साधा। बाल गंगाधर तिलक ने कुछ प्रयास भी किए लेकिन सफल नहीं हुए। परेशान फाल्के ने अपनी फ़िल्मों के प्रदर्शन के साथ विभिन्न रियासतों में भ्रमण शुरू किया अवध, ग्वालियर, इंदौर, मिराज और जामखंडी गए। अवध से 1000.00, इंदौर से 5,000 मिले और बतौर फ़िल्म प्रदर्शन 1,500 रुपए प्राप्त हो गए।
इस बीच राजा हरीशचंद्र के निगेटिव यात्रा के दौरान गुम गए तो उन्होंने सत्यवादी राजा हरीशचंद्र के नाम से फिरसे फ़िल्म शूट की जिसे आर्यन सिनमा पूना में 3 अप्रेल 1917 को प्रदर्शित किया। इसके बाद उन्होंने “How movies are made” एक डॉक्युमेंटरी फ़िल्म बनाई। कांग्रेस के मई 1917 प्रांतीय अधिवेशन में फाल्के को आमंत्रित किया और तिलक जी ने उपस्थित लोगों से फाल्के जी की मदद की अपील की। तिलक जी की अपील इस व्यापक प्रभाव हुआ। फाल्के जी को अगली फ़िल्म “लंका दहन” बनाने के लिए धन मिल गया। फ़िल्म सितम्बर 1917 में आर्यन सिनमा पूना में प्रदर्शित हुई। फ़िल्म बड़े स्तर पर सफल हुई और फाल्के को 32,000 रुपयों की आमदनी हुई उन्होंने सारे क़र्ज़ उतार कर दिए साथ ही उनके दरवाजे पर पैसा लगाने वालों की भीड़ लगनी लगी।
“लंका-दहन” की भारी सफलता के पश्चात बाल गंगाधर तिलक, रतन जी टाटा और सेठ मनमोहन दास जी रामजी 3,00,000 रुपए इकट्ठे करके फाल्के फ़िल्म कम्पनी लिमिटेड बनाने का प्रस्ताव फाल्के जी के पास भेजा। वे अतिरिक्त 1,50,000 इस प्रावधान के साथ तैयार थे कि फाल्के जी को पूँजी 1,00,000 मान्य होगी और उन्हें लाभ में 75% हिस्सेदारी भी मिलेगी। फाल्के जी ने प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया। उन्होंने बम्बई के कपड़ा व्यापारियों वामन श्रीधर आपटे, लक्ष्मण पाठक, मायाशंकर भट्ट, माधवी जेसिंघ और गोकुलदास के प्रस्ताव को स्वीकार करके 1 जनवरी 1918 को फाल्के फ़िल्म कम्पनी को हिंदुस्तान सिनेमा फ़िल्म कम्पनी में बदल कर वामन श्रीधर आपटे को मैनेजिंग पार्टनर और फाल्के जी को वर्किंग पार्टनर बनाया गया।
हिंदुस्तान सिनेमा फ़िल्म कम्पनी की पहली फ़िल्म “श्रीकृष्ण जन्म” बनाई गई जिसमें फाल्के की 6 साल की बेटी मंदाकिनी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फ़िल्म 24 अगस्त 1918 को मजेस्टिक सिनेमा बम्बई में प्रदर्शित की गई। फ़िल्म ने भारी सफलता के साथ 3,00,000 की कमाई की। उसके बाद “कालिया-मर्दन” बनाई गई। ये दोनों फ़िल्म सफल रहीं और अच्छा व्यवसाय किया। इसके बाद कम्पनी के कारिंदों का फाल्के जी से कुछ ख़र्चों और फ़िल्म के बनाने में लगने वाले समय को लेकर विवाद हो गया। फाल्के फ़िल्म निर्माण के कलात्मक पहलू पर कोई भी दख़लंदाज़ी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे उनका मानना था कि फ़िल्म की तकनीकी गुणवत्ता हेतु कोई समझौता नहीं किया जा सकता इसलिए उन्होंने कम्पनी छोड़ने का निर्णय किया लेकिन 15 वर्षीय अनुबंध के तहत उन्हें कम्पनी छोड़ने की क्षतिपूर्ति स्वरुप कम्पनी से मिले लाभांश के 1,50,000 और 50,000 रुपए बतौर नुक़सान भरपायी कम्पनी को भुगतान करने होंगे।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
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