सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल वे हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : पृथ्वीराज कपूरपर आलेख ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 6 ☆
☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : पृथ्वीराज कपूर ☆
पृथ्वीराज कपूर (3 नवंबर 1906 – 29 मई 1972) हिंदी सिनेमा जगत एवं भारतीय रंगमंच के प्रमुख स्तंभों में गिने जाते हैं। पृथ्वीराज ने बतौर अभिनेता मूक फ़िल्मो से अपना करियर शुरू किया। उन्हें भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापक सदस्यों में से एक होने का भी गौरव हासिल है। पृथ्वीराज ने सन् 1944 में मुंबई में पृथ्वी थिएटर की स्थापना की, जो देश भर में घूम-घूमकर नाटकों का प्रदर्शन करता था। इन्हीं से कपूर ख़ानदान की भी शुरुआत भारतीय सिनेमा जगत में होती है।
ब्रिटिश भारत के खैबर पख्तूनख्वा, (वर्तमान पाकिस्तान) के पेशावर में एक गली में क़िस्सा ख्वानी बाज़ार था, जहाँ दोपहर से रात दस बजे तक गप्पों का लम्बा दौर चलता था जिसमें ज़ुबान के फ़नकार और याददाश्त के धनी क़िस्साग़ो मौजूदा लोगों को रामायण-महाभारत, अरेबियन-नाइट, ब्रितानी-रानी और ईरानी-बादशाहों के साथ दिल्ली और लाहौर के क़िस्से मसाला लगाकर सुनाया करते थे।
उस गली से थोड़ी दूर पर दो दोस्तों के मकान थे, एक घर लाला ग़ुलाम सरवार और दूसरा घर दीवान बशेस्वरनाथ सिंह कपूर का था। दोनों दोस्त फलों के बाग़ानों के मालिक और भरपूर परिवार के मुखिया थे। लाला ग़ुलाम सरवार के चार बच्चे थे, असलम खान, नासिर ख़ान, यूसुफ़ खान, एहसान खान।
पृथ्वीराज कपूर का जन्म 3 नवंबर 1906 को समुंद्री, समुंद्री तहसील, लायलपुर जिला, पंजाब के खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता, बागेश्वरनाथ कपूर, पेशावर शहर में भारतीय इंपीरियल पुलिस में एक पुलिस अधिकारी के रूप में कार्य करते थे जबकि उनके दादा केशवमल कपूर समुंद्री में एक तहसीलदार थे। बॉलीवुड के मशहूर निर्माता और अभिनेता अनिल कपूर के पिता सुरिंदर कपूर पृथ्वीराज कपूर के चचेरे भाई थे।
दीवान बशेस्वरनाथ सिंह कपूर के दो बच्चे त्रिलोक कपूर और पृथ्वीराज कपूर के अलावा पृथ्वीराज कपूर की जल्दी शादी हो जाने से उनके बच्चे राज कपूर, शशि कपूर, शम्मी कपूर, उर्मिला कपूर और सिआल कपूर, सब हम उम्र थे। क़िस्सा वाली गली में क़िस्सा-कहानी सुनने जमे रहते थे, उनमें यूसुफ़ और राज सबसे आगे बैठते थे, एक आज़ाद भारत का अदाकारी सम्राट और दूसरा सबसे बड़ा क़िस्सागो “शो मेन” बनने वाला था।
पृथ्वीराज कपूर का जन्म 3 नवम्बर 1906 को समुंद्री, फैसलाबाद, पंजाब (ब्रिटिश भारत), अब पाकिस्तान का पंजाब में हुआ था। वे ख्याति नाम फ़िल्म अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, लेखक थे। जब वे 17 साल के तब उनका विवाह 19 वर्षीय रामसरनी मेहरा (1923–1972) से हुआ और राजकपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर उनके सुपुत्र थे। पृथ्वीराज कपूर को कला क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 1972 में उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।
पृथ्वीराज ने पेशावर पाकिस्तान के एडवर्ड कालेज से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने एक साल तक कानून की शिक्षा भी प्राप्त की जिसके बाद उनका थियेटर की दुनिया में प्रवेश हुआ। 1928 में उनका मुंबई आगमन हुआ। कुछ एक मूक फ़िल्मों में काम करने के बाद उन्होंने भारत की पहली बोलनेवाली फ़िल्म आलम आरा में मुख्य भूमिका निभाई।
पृथ्वीराज लायलपुर और पेशावर में थियेटर में अभिनय करते थे। वे अपनी चाची से क़र्ज़ लेकर 1928 बम्बई आकर इम्पीरीयल फ़िल्म कम्पनी में नौकरी करने लगे जहाँ उन्होंने “दो धारी तलवार” मूक फ़िल्म में एक्स्ट्रा की भूमिका की, जिससे प्रभावित होकर उन्हें 1929 में “सिनेमा गर्ल” में मुख्य भूमिका मिल गई। उन्होंने कुल 9 मूक फ़िल्मों में काम किया जिनमे शेर ए अरब और प्रिन्स विजय कुमार धसमिल थीं। फिर उन्हें पहली सवाक् फ़िल्म आलमआरा में काम करने का मौक़ा मिला।
आलमआरा (विश्व की रौशनी) 1931 में बनी हिन्दी भाषा और भारत की पहली सवाक (बोलती) फिल्म है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी हैं। ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुये, आलमआरा को और कई समकालीन सवाक फिल्मों से पहले पूरा किया। आलम आरा का प्रथम प्रदर्शन मुंबई (तब बंबई) के मैजेस्टिक सिनेमा में 14 मार्च 1931 को हुआ था। यह पहली भारतीय सवाक इतनी लोकप्रिय हुई कि “पुलिस को भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए सहायता बुलानी पड़ी थी”। मास्टर विट्ठल, जुबैदा और पृथ्वीराज कपूर मुख्य कलाकार थे।
1937 में पृथ्वीराज की फ़िल्म विद्यापति आई जो एक बंगाली बायोपिक फिल्म है, जिसे देबकी बोस ने न्यू थियेटर्स के लिए निर्देशित किया है। इसमें विद्यापति के रूप में पहाड़ी सान्याल ने अभिनय किया। फ़िल्म में उनके साथ कानन देवी, पृथ्वीराज कपूर, छाया देवी, लीला देसाई, के. सी. डे और केदार शर्मा थे। संगीत आर. सी. बोरल का था और गीत केदार शर्मा ने लिखे थे। देबकी बोस और काजी नजरूल इस्लाम ने कहानी, पटकथा और संवाद लिखे। कहानी मैथिली कवि और वैष्णव संत विद्यापति के बारे में है। फिल्म के गीत लोकप्रिय हो गए। इसने सिनेमाघरों में 1937 की बड़ी सफलता हासिल करने वाली भीड़ को सुनिश्चित किया।
उन दिनों की फिल्मों में नायिका-केंद्रित होने का चलन था और हालांकि इस फिल्म को विद्यापति कहा जाता था, लेकिन फिल्म की मुख्य कलाकार कानन देवी थीं। एक मजबूत स्क्रिप्ट के साथ फिल्म का मुख्य प्रदर्शन उनका मुख्य प्रदर्शन बन गया।
पृथ्वीराज कपूर के प्रदर्शन को फिल्मइंडिया के संपादक बाबूराव पटेल ने उच्च दर्जा दिया, जबकि “नवागंतुक” मोहम्मद इशाक की भी सराहना की। उन्होंने देबकी बोस के निर्देशन को “कला की बेहतरीन कविता” और बोस को “वास्तव में एक महान निर्देशक” कहा।
इस फिल्म का उपयोग गुरुदत्त ने अपनी फिल्म कागज़ के फूल (1959) में थिएटर युग की बालकनी में फ़िल्म के किरदार सुरेश को श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत किया, जहाँ विद्यापति को दर्शकों द्वारा देखा जा रहा है।
संगीत निर्देशक आर. सी. बोराल ने अपने संगीत निर्देशन में पियानो का उपयोग करके पश्चिमी प्रभाव में लाए। यह प्रभाव लोकप्रिय होने के साथ-साथ क्लासिक धुनों में भी सफल रहा और गीतों को काफी सराहा गया। अनुराधा की भूमिका जिसे कानन देवी ने अधिनियमित किया था, उसे नाज़रुल इस्लाम ने बनाया था। उनके गीत “मोर अंगना में आयी आली” और के. सी डे के साथ उनके युगल गीतों ने उन्हें न्यू थियेटर्स में के. एल. सहगल के साथ शीर्ष महिला गायन स्टार बना दिया। केदार शर्मा ने अपने और देबकी बोस के बीच मतभेदों के बाद न्यू थियेटर्स को छोड़ दिया।
पृथ्वीराजकी 1941 में एक बहुत बेहतरीन फ़िल्म “सिकंदर” आई, जिसके निर्देशक सोहराब मोदी थे। इस फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर ने सिकंदर महान का किरदार निभाया है।
कहानी 326 ई.पू. फिल्म सिकंदर महान के फारस और काबुल घाटी पर विजय के बाद भारतीय अभियान से शुरू होती है, सिकंदर की सेना झेलम में भारतीय सीमा तक पहुंचती है। वह अरस्तू का सम्मान करता है और फारसी रुखसाना से प्यार करता है। सोहराब मोदी भारतीय राजा पुरु (यूनानियों के लिए पोरस) की भूमिका में हैं। पुरु पड़ोसी राज्यों से एक सामान्य विदेशी दुश्मन के खिलाफ एकजुट होने का अनुरोध करता है। विश्वासघाती आम्भी राजा की भूमिका में के.एन.सिंग थे।
जब सिकंदर ने पोरस को हराया और उसे कैद किया, तो उसने पोरस से पूछा कि उसका इलाज कैसे किया जाएगा। पोरस ने उत्तर दिया: “जिस तरह एक राजा दूसरे राजा द्वारा व्यवहार किया जाता है”। सिकंदर उनके जवाब से प्रभावित हुए और उन्हें आज़ाद कर दिया। पृथ्वीराज और सोहराब मोदी के लम्बे-लम्बे संवाद फ़िल्म की जान थे। बाद में एक फ़िल्म “सिकंदरे आज़म भी बनी थी जिसमें दारासिंह सिकंदर और पृथ्वीराज राजा पोरस बने थे।
पृथ्वीराज को थियेटर का बचपन से शौक़ था। बम्बई में सोहराब मोदी पारसी थियेटर से जुड़े थे। उनकी संवाद अदायगी और भूमिका निर्वाह में थियेटर की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पृथ्वीराज को भी थियेटर की ललक जागी तो उन्होंने बम्बई की एंडरसन थियेटर कम्पनी में शौक़िया जाना शुरू किया। उन्हें नियमित रूप से नाटकों में भूमिका मिलने लगी। एंडरसन थियेटर कम्पनी इंग्लिश-यूरोपियन थियेटर के शेक्सपियर के नाटकों प्रभावित था। पृथ्वीराज नाटकों और फ़िल्मों के मंजे हुए कलाकार के रूप में उभरने लगे। पृथ्वीराज पर थियेटर का ऐसा रंग चढ़ा कि उन्होंने 1944 में बम्बई में पृथ्वी थियेटर स्थापित कर दिया हालाँकि वे 1942 से कालिदास का अभिज्ञान शकुन्तलम नाटक प्रस्तुति कर रहे थे।
पृथ्वीराज 1946 तक अपने भरे पूरे परिवार के एकमात्र कमाने वाले मुखिया थे। जब राजकपूर फ़िल्मों में काम करने लगे और आग फ़िल्म से निर्माता-निर्देशक के रूप में उभरने लग गए तो पृथ्वीराज पूरी तरह थियेटर को समर्पित हो गए।
उन्होंने आज़ादी की थीम पर पूरे देश में घूमकर नाटक मंचन करना शुरू कर दिया। उन्होंने दो सालों में 2662 नाटक मंचित किए। उनका एक बहुत प्रसिद्ध नाटक पठान था जो हिंदू मुस्लिम एकता ओर केंद्रित था, जिसे बम्बई में 600 बार मंचित किया। उनके थिएटर ग्रुप में 80 कलाकार थे। 1950 तक फ़िल्मे अधिक बनने लगीं और छोटे शहरों में भी टाक़ीज खुलने से घुमंतू थिएटर का ज़माना लदने लगा। उनके ग्रुप के अधिकांश कलाकार भी फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ गए तब उन्होंने भी 1951 से राजकपूर की फ़िल्म आवारा से फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया। पृथ्वी थिएटर बम्बई में काम करता रहा। वे फ़िल्मों से जितना भी कमाते थियेटर में लगा देते थे।
उन्होंने 1960 में मुग़ल-ए-आज़म, 1963 में हरीशचंद्र तारामती, 1965 में सिकंदर-ए-आज़म और 1971 में कल आज और कल में काम किया था।
उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों नानक नाम जहाज़ है (1969) नानक दुखिया सब संसार (1970) और मेले मित्तरां दे (1972) में भी काम किया था।
उन्हें 1954 में साहित्य अकादमी अवार्ड, 1969 में पद्म भूषण पुरस्कार और 1971 में दादा साहिब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया था। वे 9 सालों तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे थे।
वे उनकी पत्नी दोनों कैंसर से पीड़ित होकर आठ दिनों के अंतर से स्वर्ग सिधार गए, पृथ्वीराज की मृत्यु 29 मई 1972 को बम्बई में हुई थी।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश