श्री जगत सिंह बिष्ट
(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल“।)
☆ दस्तावेज़ # 9 – रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
श्रद्धेय रवींद्रनाथ त्यागी व्यंग्यकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने उत्कृष्ट कविताएं, और ललित निबंध भी लिखे हैं। साथ ही साथ, वे एक बड़े सरकारी अधिकारी भी थे।
गर्मियों की छुट्टी में हम अक्सर देहरादून जाते थे। वहां उनकी एक आलीशान कोठी थी। उनके पुस्तकालय में, संस्कृत, हिंदी और इंग्लिश की, हजारों पुस्तक और ग्रन्थ थे। उनके जैसा विद्वान और खूब पढ़ने वाला साहित्यकार मैंने नहीं देखा। उनके अक्षर मोती जैसे सुन्दर थे और वे बहुत मेहनत से, अपनी कलम से ही पुस्तकों की पांडुलिपि तैयार करते थे।
मेरे और मेरे परिवार के प्रति उनका गहरा स्नेह था। उन्होंने हमें अनेक बार डिनर पर आमंत्रित किया। एक बार हम उनके लिए अल्मोड़ा की प्रसिद्ध बाल मिठाई लेकर गए। उन्होंने पूछा कि यह क्या है? जब हमने बताया कि बाल मिठाई है, तो मिठाई के बड़े आकार को देखकर बोले, “ये बाल मिठाई नहीं, बाप मिठाई है!” उन्होंने डब्बे में से एक पीस निकालकर कहा, “बाकी घर ले जाओ, यहां डायबिटीज़ की वजह से मीठा खाने वाला कोई नहीं है।”
एक दिन उन्होंने कहा, “मेरी एक मोटी पुस्तक आने वाली है – बादलों का गांव। उसकी पहली प्रति तुमको भेजूंगा।” पुस्तक प्रकाशित होने पर, उन्होंने एक प्रति मुझे रजिस्टर्ड डाक से भेजी। अंदर उनका पता लिखा एक पोस्टकार्ड था। उन्होंने लिखा था, “आज ही प्राप्ति की सूचना भेजो। पुस्तक पर प्रतिक्रिया पढ़कर भेजना।”
‘बादलों का गांव’ रवींद्रनाथ त्यागी की अति सुन्दर कृति है। एक-एक रचना मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। शीर्षक रचना ‘बादलों का गांव’ तो अप्रतिम है। ऐसी करुणामय रचना हिंदी या विश्व साहित्य में शायद ही कोई और हो! ऐसे आत्मकथ्य के लिए बहुत साहस और ईमानदारी चाहिए। शत् शत् प्रणाम!
मेरे पहले व्यंग्य-संग्रह की उन्होंने सराहना की थी और लिखा, “यह मेरे पहले संग्रह से कहीं बेहतर है।”
एक बार उन्होंने कहा था – तुम्हारी ‘पल्पगंधा’ व्यंग्य-कथा मुझे बहुत अच्छी लगी। यह हिंदी साहित्य की एक उत्कृष्ट रचना है। जो जगत सिंह बिष्ट पल्पगंधा लिख सकता है, वह ऐसी और रचनाएं क्यों नहीं लिखता?
मेरे चौथे संग्रह पर उनकी तल्ख़ टिप्पणी थी, “आपकी पुस्तक (कुछ लेते क्यों नहीं) मिली। ध्यानपूर्वक पढ़ गया। बहुत कमज़ोर कृति है। बढ़िया पंक्तियां तीस से ज़्यादा नहीं निकलेंगी। इस तरह जल्दी करने से कुछ नहीं मिलेगा… सस्ती ख्याति का कोई महत्व नहीं होता। हर अगली किताब पिछली वाली से श्रेष्ठतर होनी है और आपको सबसे अलग कुछ देना है। मैं तुमसे आयु और अनुभव में बड़ा हूं। कभी कभी डांटना मेरा अधिकार है। मैं झूठी प्रशंसा करके आपको गुमराह नहीं करना चाहता हूं। आप मेरे आत्मीय हैं।”
पंद्रह दिन बाद, उनका अगला पत्र आया, जिसमें उन्होंने लिखा, “आपकी पुस्तक पर मैंने शायद कुछ ज़्यादा ही तीखा लिख डाला। कृपा करके तुरंत लिखो कि तुमने इस बड़े भाई को क्षमा कर दिया।” ऐसे नेक दिल इंसान थे बड़े भाई रवींद्रनाथ त्यागी जी!
उन्होंने मुझे अनेकों पत्र लिखे, यह मेरा सौभाग्य है। उनके द्वारा लिखे गए दो पत्रों की फोटो इस संस्मरण के साथ पोस्ट कर रहा हूं। इनसे आपको एक अंदाज़ा लग जाएगा। उनके जैसे सुन्दर अक्षर, मानो गढ़े हुए, अब दुर्लभ हो गए हैं। उनके ये पत्र, उस समय के मूल्यवान दस्तावेज़ बन गए हैं। उनके जैसे अनुशासित और कठिन परिश्रम करने वाले व्यक्तित्व अब मानो लुप्त हो गए हैं। उनके जैसा सुगठित लेखन भी अब कहां देखने को मिलता है। वैसा स्नेहिल बड़प्पन अब कहां खोजें? बहुत याद आते हैं श्रद्धेय रवींद्रनाथ त्यागी जी!
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© जगत सिंह बिष्ट
Laughter Yoga Master Trainer
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈