हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…2”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

दरअसल “मैं” की यात्रा दुरूह होती है। माँ के गर्भ में आते ही “मैं” को कई सिखावन से लपेटना शुरू होता है वह यात्रा के हर पड़ाव पर कई परतों से ढँक चुका होता है। घर, घर के सदस्य, मोहल्ला, मोहल्ला के साथी, पाठशाला, पाठशाला के साथी, शिक्षक, संस्कारों की बंदिशें, मूल्यों की कथडियों, संस्था और संस्थाओं के रूढ़-रुग्ण नियमों से “मैं” घबरा कर समर्पण कर देता है। यह समर्पण स्थापित व्यवस्था के समक्ष होता है, देव या सर्वोच्च दैविक सत्ता के समक्ष नहीं। “मैं” का   दैविक सत्ता के समक्ष समर्पण अंतिम परिणति है। वह समर्पण मृत्यु के पूर्व चिंतन विधि से नियति के समक्ष जागृत अवस्था में होता है या मृत्यु देव के शिकंजे में लाचार स्थिति में होता है। यही मुख्य भेद है।

“मैं” मौलिकता खो देता है। उसकी जगह नया सृजित “मैं” सिंहासन पर क़ाबिज़ हो चुकता है। जिसे धन, यौवन, यश, मोह की रस्सियों से कस दिया जाता है। “मैं” जब कभी मौलिकता की ओर लौटना चाहता है तो उसे संस्कारों की दुहाई से बरबस खींच कर सृजित “मैं” की खोल में पुनः लाकर लपेट दिया जाता है।

आध्यात्मिक इतिहास को देखें तो पाते हैं कि “मैं” को छापों से मुक्त करके ही प्रज्ञा जन्मी है। कृष्ण गीता में अर्जुन के मस्तिष्क पर से उसके “मैं” की छापों से मुक्त करके एक स्वतंत्र अस्तित्व से परिचय करवाते हैं। जहाँ मोहग्रस्तता से मुक्त आत्मा निष्काम कर्म को प्रेरित होती है।

भगवत गीता में, “मैं” याने आत्मा की खोज याने आत्मचिंतन द्वारा आत्मबोध की पहली सीढ़ी पर चढ़ने का हवाला मिलता है। गीता कहती है “मैं” याने आत्मा देह से विलग एक स्वतंत्र अस्तित्व है। देह प्रकृति से उत्पन्न है उसमें परमात्मा का तत्व आत्मा रूप में स्थित है, जब तक आत्मा देह में है, देह सत्य है, शिव है, सुंदर है परंतु आत्मा के निकलते ही देह शव हो जाती है। जिसे अविलम्ब पंचतत्वों में विलीन करके प्रकृति को वापस करना होता है।

गीता बताती है कि आत्म तत्व को देह से अलग करने की अनुभूति ध्यनापूर्वक चिंतन से प्राप्त की जा सकती है। ग्रंथ कहता है कि “मैं” और देह के बीच इंद्रियों की सत्ता है। जब मैं भोग करूँ तब यह भाव मन में रहे कि “मैं कुछ नहीं कर रहा, इंद्रियाँ इंद्रियों में बरत रहीं हैं।” यदि जलेबी खा रहा हूँ तो यह कहना होगा कि रसना रस ले रही है, आत्मा को रस से कोई मतलब नहीं है। इस सोच से इंद्रियों से मोह छूटना आरम्भ होता है। यहीं से आत्मतत्व को देह तत्व से विलग करने की यात्रा आरम्भ की जा सकती है। इस यात्रा को ध्यान पद्धति से निरंतर करके आत्मबोध की तरफ़ बढ़ा जा सकता है। जैसे-जैसे आत्मबोध अनुभूति पक्की होने लगती है वैसे-वैसे जन्म-मृत्यु का बोध लुप्त होने लगता है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈