श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।
आज से प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष आलेख “विश्व कविता दिवस…”।)
आलेख – “विश्व कविता दिवस…” ” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
विश्व कविता दिवस (World Poetry Day) प्रतिवर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है। यूनेस्को ने इस दिन को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा वर्ष 1999 में की थी जिसका उद्देश्य कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देते हुए पूरे विश्व के कवियों और कविताओं को करीब लाना है।
सम्पूर्ण श्रृष्टि ही किसी कवि की कविता है। काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो विधिवत छन्दों में बांधी जाती है। भारत की प्राचीनतम कविताएं संस्कृत भाषा में ऋग्वेद में हैं जिनमें प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे गए छंदों का सुंदर संकलन हैं।
आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास लगभग 800 साल पुराना है और इसका प्रारंभ तेरहवीं शताब्दी से समझा जाता है। हर भाषा की तरह हिंदी कविता भी पहले इतिवृत्तात्मक थी। यानि किसी कहानी को लय के साथ छंद में बांध कर अलंकारों से सजा कर प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय साहित्य के सभी प्राचीन ग्रंथ कविता में ही लिखे गए हैं। इसका विशेष कारण यह था कि लय और छंद के कारण कविता को याद कर लेना आसान था। जिस समय छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था और दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां बनाना आसान नहीं था उस समय महत्वपूर्ण बातों को याद रख लेने का यह सर्वोत्तम साधन था। यही कारण है कि उस समय साहित्य के साथ-साथ राजनीति, विज्ञान और आयुर्वेद को भी पद्य (कविता) में ही लिखा गया। जीवन के अनेक अन्य विषयों को भी इन कविताओं में स्थान मिला है।
सम्पूर्ण विश्व ही किसी कवि की कविता है। ऐसा इसलिए कि ऋग्वेद में ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम “कवि” भी है। कविता सिर्फ कविता होती है। किसी भी भाषा या देश की कविता हो, उसके मूल भाव और प्रवृत्तियां लगभग एक जैसी होती हैं। लेकिन हम चूँकि भारतवासी हैं इसलिए भारत में कवि और कविता के विषय में अपनी ही परम्परा के आलोक में मुख्य रूप से चर्चा करेंगे।
भारत में सभी प्रकार के साहित्य को काव्य कहा गया है। साहित्य को समाज का दर्पण कहते हैं। किसी समाज को समझना हो तो उसमें कही जा रही कविता या साहित्य को पढ़ा जाए।
आइये, सबसे पहले यह देखते हैं कि हमारे देश में कविता किसे कहा गया है। उसे किस तरह परिभाषित किया गया है। जीवन की तरह कविता भी अनंत है, जिसे किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता। लेकिन इसे अनेक लोगों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। जहाँ तक भारतीय कविता का प्रश्न है, तो उसे समझने की शुरूआत हमें संस्कृत से ही समझना करनी होगी, क्योंकि यही सब भारतीय भाषाओं की जननी है।
हमारे देश में साहित्य के अनेक सम्प्रदाय हैं और हर सम्प्रदाय के आचार्यों ने कविता को अपने-अपने ढंग से निरूपित और परिभाषित किया है। किसीने अलंकार को कविता माना, तो किसीने रीति को; किसीने औचित्य को तो किसीने वक्रोक्ति को; किसीने ध्वनि को कविता माना तो किसीने रस को। लेकिन इसमें से कोई भी कविता के पूरे मर्म को अभिव्यक्त नहीं करता।
बहरहाल, कविराज विश्वनाथ की परिभाषा को लगभग सर्वमान्य कहा जा सकता है। उन्होंने कहा है कि “वाक्यं रसात्मक काव्यं”। यानी रसपूर्ण वाक्य की काव्य है। शब्द रूपी काव्य-शरीर में रस रूपी आत्मा होनी चाहिए, अन्यथा यह बिना आत्मा के शरीर के समान है। आचार्य भरत ने रस का प्रतिपादन करते हुए कहा कि रसो वैस: यानी, रस ही ब्रह्म व परमात्मा है। इस प्रकार कुल मिलाकर रस की निष्पत्ति करने वाला व्यवस्थित वाक्य ही काव्य है।
भारत के मनीषियों का हर विषय में चिन्तन सर्वोच्च स्तर का है। उन्होंने ईश्वर को कवि निरूपित करते हुए कहा कि-
कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू
अर्थात कवि मनीषी, परिभू यानी सर्वव्याप्त और स्वयंभू अर्थात अनादि है।
कवि को हमारे शास्त्रों ने साधारण मानव नहीं माना है। वह सामान्य व्यक्ति से ऊपर उठा होता है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि-
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तितस्तत्र,
अर्थात मर्त्यलोक में मनुष्य जन्म दुर्लभ है। उसमें भी ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन है। ज्ञान में भी कवित्व दुर्लभ है। कविता करने की शक्ति अत्यंत दुर्लभ है और कठिनाई से प्राप्त होती है।
संभवत: इसी श्लोक से प्रेरित होकर कवि गोपालदास नीरज ने लिखा कि-
आत्मा के सौन्दर्य का शब्द रूप है काव्य
मानव होना है भाग्य
कवि होना सौभाग्य।
कविता के लिए क्या ज़रूरी? इस विषय में भारत और पाश्चात्य साहित्य मनीषियों का चिन्तन लगभग एक जैसा है। उन्होंने इसके लिए प्रतिभा को पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता माना है, जिसके बिना कविता करना संभव नहीं है। अधिकतर मनीषियों का मत है कि काव्य-प्रतिभा जन्मजात होती है। हालाकि कुछ लोगों का मानना है कि प्रयास और अभ्यास से इसे अर्जित किया जा सकता है। ऐसे सज्जनों को भी कविता का रुझान ज़रूरी है।
प्रतिभा सिर्फ कविता करने वाले के लिए ही नहीं, उसे सुनने वाले के लिए भी आवश्यक बतायी गयी है। हमारे देश में दो प्रकार की प्रतिभाएँ कही गयी हैं- कारयत्री प्रतिभा और भावयत्री प्रतिभा। पहली का सम्बन्ध कवि से है और दूसरी का श्रोता या रसिक से। बहरहाल, अकेली प्रतिभा से बहुत प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। अभ्यास और निरंतर ज्ञान अर्जन की प्रवृत्ति से ही श्रेष्ठ कविता की रचना हो सकती है। कवि को दूसरे कवियों और साहित्य को निरंतर पढ़ते रहना चाहिए। भाषा, व्याकरण और काव्य के विभिन्न अंगों को परिष्कृत करते हुए अपनी शब्द-शक्ति को बढ़ाते रहना चाहिए। महाकवि तुलसीदास भले ही कहते हों कि-
कवित विवेक एक नहीं मोरे,
सत्य कहहुं लिखि कागद कोरे।
यानी मैं कोरे कागज़ पर यह बात लिखकर दे सकता हूँ कि मुझे कविता का बिल्कुल विवेक नहीं है। लेकिन इतनी बड़ी बात तो तुलसी जैसा महाकवि ही कह सकता है। उन्हें काव्यशास्त्र, छंद विधान, व्याकरण, भाषा और काव्य के सभी अंगों में असाधारण श्रेष्ठता हासिल थी।
अंग्रेजी कवि वर्ड्सवर्थ (Wordsworth) ने कहा है कि अनुभूति की प्रगाढ़ता कविता का प्रमुख तत्व है। सही बात है। केवल प्रतिभा, काव्यशास्त्र के नियमों और भाषा की श्रेष्ठता भर से श्रेष्ठ कविता नहीं हो सकती। श्रेष्ठ और शाश्वत कविता की रचना के लिए कवि की चेतना को इतना ऊंचा उठना पड़ता है कि व्यक्ति के रूप में कवि रह ही नहीं जाता सिर्फ कविता रह जाती है। दुनिया में जितने भी श्रेष्ठ कवि हुए हैं, उनकी चेतना इतनी ही ऊपर उठी थी। वे इतने भावाविष्ट हो जाते हैं कि उन्हें खुद ही पता नहीं होता कि वे क्या लिख रहे हैं। लिखने के बाद उन्हें खुद आश्चर्य होता है कि क्या यह मैंने लिखा है?
इस सन्दर्भ में महान अंग्रेज़ी कवि कॉलरिज से जुड़ा एक प्रसंग याद हो आता है। विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी साहित्य के एक प्रोफ़ेसर कॉलरिज की कोई कविता पढ़ा रहे थे। उन्हें एक पंक्ति का अर्थ समझ नहीं आ रहा था। उन्होंने स्टूडेंट्स से कहा कि यह पंक्ति मुझे समझ नहीं आ रही है। इसका अर्थ में कवि लिखते समय बता सकता है। वह शाम को कॉलरिज के घर गये। वह अपने घर के लॉन में बैठे थे। प्रोफ़ेसर ने उनसे उस पंक्ति का मतलब पूछा। कॉलरिज ने कहा कि इस पंक्ति का मतलब तो सिर्फ दो लोग जानते हैं- एक कवि और एक ईश्वर। प्रोफ़ेसर ने कहा कि ईश्वर को कहाँ तलाशूंगा, आपने उसकी रचना की है, लिहाजा खुद ही बता दीजिये। कॉलरिज ने कहा कि जिस कॉलरिज ने ये पंक्तियाँ, लिखीं वह तो लिखकर चला गया। मुझे खुद ही पता नहीं कि इन पंक्तियों का क्या मतलब है।
इसी तरह की बात महान कवि कीट्स के बारे में पढ़ने में आती है। उनकी अनेक कविताएँ अधूरी पड़ी रहीं। लोगों ने उनसे कहा के वह उन्हें पूरी कर दें। लेकिन कीट्स कवि उन्हें पूरी नहीं कर पाए। चेतना की जिस अवस्था में उन्होंने वे पंक्तियाँ लिखी थीं, वह चेतना कविता पूरी होने तक नहीं रह सकी। फिर कभी वैसी स्थिति नहीं बनी। उनके लाख प्रयास करने पर भी ये कविताएँ अधूरी ही रह गयीं। इसलिए हमें कुछ कविताओं के अर्थ समझ नहीं आते।
उर्दू में इसे ही आमद की शायरी कहा गया है। महान शायर ज़िगर मुरादाबाद शराब बहुत पीते थे। इसीके कारण उनका जीवन बर्बाद रहा। लेकिन उन्होंने एक बहुत चौंकाने वाली बात कही। उन्होंने कहा कि जब उन पर शेर नाज़िल होते हैं, तो वह महीनों शराब को छूते तक नहीं हैं।
संत तुलसीदास ने अपनी कालजयी कृति “रामचरितमानस” के बारे में कहा कि यह उनके भीतर से प्रकाशित हुयी है। इसीलिए महान ग्रंथों को अपौरुषेय कहा गया है। आमतौर पर इसका अर्थ यह लगाया जाता है कि इन्हें किसी व्यक्ति ने नहीं लिखा, लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना है कि चेतना की जिस अवस्था में उनकी रचना हुई, उस समय व्यक्ति के रूप में रचनाकार नहीं रह गया।
ईश्वर की तरह ही कविता का भी कोई अंत नहीं है। इस पर हज़ारों पुस्तकें लिखने पर भी बहुत कुछ अनकहा रह जाएगा। बहरहाल, कवि बनने की चाह रखने वालों को मनीषी की तरह चेतना प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈