श्री प्रतुल श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य व्यंग्य “इच्छाधारी नाग के साथ रेल यात्रा…”।)
☆ हास्य – व्यंग्य ☆ “इच्छाधारी नाग के साथ रेल यात्रा…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
मैं मुम्बई से जबलपुर लौट रहा था, रात्रि में ट्रेन पूरी गति से दौड़ रही थी।
अचानक मेरी नजर अपने बाजू वाली बर्थ पर लेटे व्यक्ति की चमकदार गोल आंखों पर पड़ी। मुझे थोड़ा अजीब लगा फिर सोचा दुनिया में तरह तरह की आंखों वाले लोग हैं। नीली, लाल, भूरी, काली आंखों वाले लोग। मछली, हिरनी, उल्लू, सांप जैसी आंखों वाले लोग। होगा कोई, मुझे क्या। तभी अचानक गोल चमकदार आंखों वाला वह व्यक्ति मुझसे बोला श्रीवास्तव जी आपका शक सही है। मैंने कहा भाई आप मुझे कैसे जानते हैं और कौन से शक की बात कर रहे हैं? वह बोला भाई परेशान न हों मैं सब को पहचान लेता हूं। मैं इच्छाधारी नाग हूं, मुझे कुछ विशिष्ट शक्तियां प्राप्त हैं। रात के समय ट्रेन की बत्तियां बंद थीं उसकी चमकती आंखें देखकर और बातें सुनकर मैं थोड़ा घबरा गया। उसने कहा श्रीवास्तव जी घबराएं नहीं आपका धर्म भी फुफकारना और डसना है और मेरा भी यही धर्म है, इसीलिए मैंने आपको अपना परिचय दिया। मैंने कहा यह कैसे हो सकता है, मैं सांप नहीं आदमी हूं। आदमी के वेश में ट्रेन की सीट पर लेटे इच्छाधारी सांप ने पहले मेरी ओर जहरीली मुस्कुराहट फेंकी फिर हंसा और कहा आदमी तो हो लेकिन व्यंग्यकार हो न इसीलिए तो कहा कि हम दोनों का फुफकारने और डसने का धर्म एक ही है। इच्छाधारी अचानक कुछ उदास हो गया।
मैंने कहा भाई क्या बात है? इतने शक्ति सम्पन्न होने के बाद भी तुम्हारे चेहरे पर उदासी? वह बोला सही बात है, जब भी किसी व्यंग्यकार को देखता हूं तो उदास हो जाता हूं क्योंकि आप लोग मुझसे ज्यादा शक्तिशाली हैं। मैंने कहा – इच्छाधारी जी क्यों मजाक कर रहे हो! वह बोला – व्यंग्यकारों की नजर और सूंघने की शक्ति मुझसे बहुत तेज होती है उन्हें न जाने कहां से लोगों के बारे में सब जानकारी हो जाती है और वे लिखकर फुफकार भी मारते रहते हैं और डस भी लेते हैं। भाई जी हम तो जिसे डसते हैं वह मात्र कुछ क्षण छटपटा कर मर जाता है, लेकिन जब आप अपनी कलम से किसी को डसते हैं तो उसे आजीवन अपमान का मृत्यु तुल्य दर्द झेलना पड़ता है। अब बताइए आप बड़े की मैं? मैंने कहा – इच्छाधारी जी जब आप सब जानते हैं तो यह भी जानते होंगे कि मैं सिर्फ व्यंग्यकार हूं बड़ा नहीं। इच्छाधारी मुस्कुराया और बोला श्रीवास्तव जी आज लेखन की हर विधा में दो प्रकार के लोग हैं, एक वे जो वास्तव में जानकार और विद्वान हैं, जिनके पास प्रशंसक तो हैं पर चापलूस नहीं दूसरे वे जो स्वयं को बड़ा समझते हैं और अपने बड़े होने का निरंतर प्रचार प्रसार कराते रहते हैं इनके पास प्रशंसक तो नहीं होते,चापलूस होते हैं। ये सृजन से अधिक जुगाड़ की शक्ति पर भरोसा करते हैं और सरकारी गैर- सरकारी सम्मान, पुरस्कार लेकर स्वयं पर श्रेष्ठ होने का ठप्पा लगवा लेते हैं। इच्छाधारी जी आगे बोले – श्रीवास्तव जी रामधारी सिंह “दिनकर”, मन्नू भंडारी, परसाई जी आदि की बात अलग थी उन्हें छोड़िए और बताइए की आज जितने भी कथाकार, कवि, नाटककार अथवा व्यंग्यकार हैं अथवा जो भी राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए छटपटा रहे हैं उनमें से कितने लोगों का लिखा हुआ आपकी समझ में आता है?
इच्छाधारी के प्रश्न पर मैंने मौन रहना उचित समझा। सोचा कोई टिप्पणी करके क्यों आज के बड़े तथाकथित रचनाकारों से बुराई लूं, वे सब लोग ही तो पुरस्कार और सम्मान समितियों के चयनकर्ता बने बैठे हैं। हो सकता है किसी के दिमाग में अगले बड़े सम्मान के लिए मेरा नाम चल रहा हो।
मेरी चुप्पी से इच्छाधारी ने मेरा मन पढ़ लिया वह मुस्कुराते हुए बोला – व्यर्थ उम्मीद न लगाएं आपको सम्मान दिलाने में किसी की रुचि नहीं है। मैंने कहा क्यों भाई मुझमें क्या कमी है? उसने कहा – क्योंकि आप सिर्फ व्यंग्यकार हैं, सम्मान प्राप्त करने के लिए व्यंग्य बाणों के साथ – साथ “चापलूसी का हथियार” चलाना भी आना चाहिए। मैंने प्रश्न किया इच्छाधारी जी कृपया बताएं मुझे चापलूसी नामक हथियार चलाना कौन सिखा सकता है? वह जोर से हंसा फिर सांसों पर नियंत्रण करके बोला – यह जन्मजात गुण है प्यारे भाई, इसे सिखाया नहीं जा सकता। इच्छाधारी ने आगे कहा आप तो अपने साथियों को रचनाएं सुना – सुना कर प्रसन्न रहें।
मैंने चौंकते हुए कहा – अरे आप मेरे साथियों के बारे में भी जानते हैं! वह बोला, भाई जी मैं सबको जनता हूं, आप कहें तो नाम गिना दूं। आखिर आप सब फुफकारने – डसने वाले मेरे ही धर्म के लोग हैं। मैंने कहा भाई जी जब आप सबको जानते हैं तो इतना बता दें कि हमारे साथियों में से कौन भाग्यशाली बड़ा सम्मान पाने की योग्यता रखता है? इच्छाधारी हंसा फिर बोला – अच्छे रचनाकार तो सभी हैं लेकिन सभी नर्मदा का पानी पीकर अक्खड़ हो गए हैं, चापलूसी का हथियार चलाना कोई नहीं जानता अतः आप सब बड़े सम्मान की उम्मीद न करें और निःस्वार्थ नगर के बाहर के रचनाकारों का सम्मान करके उन्हें बड़ा बनाने की संस्कारधानी की परम्परा निभाएं।
मैंने निराश होते हुए कहा – क्या हममें से किसी को राष्ट्रीय स्तर का कोई सम्मान नहीं मिल सकता? इच्छाधारी कुछ सोचता हुआ बोला – मिल सकता है, यदि पुरस्कार चयन समिति के सदस्यों को कोई यह ज्ञान दे दे कि इनमें से किसी को सम्मान के लिए चुन लेने पर चयन समिति पर लगा यह धब्बा मिट जायेगा कि समिति के सदस्य सिर्फ चमचों को ही पुरस्कृत करते हैं। मैंने कहा – इच्छाधारी जी चयन समिति के सदस्यों के दिमाग में इस बात को आप ही प्रविष्ट करा सकते हैं कृपया मदद करें।
वह बोला, मुझे आप लोगों से हमदर्दी है किंतु क्या करूं पहले नाग वेश में ट्रेन में घुसकर मुफ्त यात्रा कर लेता था किंतु विगत दिवस आपके मित्रों ने मेरे गरीबरथ में यात्रा करने का इतना हल्ला मचा दिया कि अब मुझे आदमी के वेश में टिकट लेकर रेल यात्रा करना पड़ रही है। आप लोगों के काम से न जाने कहां कहां जाना पड़ेगा, न जाने कितना पैसा खर्च होगा? बातों बातों में रास्ता काट गया, जबलपुर आने वाला था। मैंने मनुष्य रूपी उस इच्छाधारी नाग से प्रार्थना करते हुए कहा कि भाई आप ही ने तो कहा था कि हम लोग फुफकारने – डसने वाले एक ही धर्म के लोग हैं। वह मुस्कुराया, हाथ मिलाकर विदा लेता हुआ बोला कि ठीक है प्रयत्न करूंगा।
वह नाग रूप धारण कर पटरियों के बीच गायब हो गया।
अब मुझे घर पहुंचने की जल्दी थी अतः मैंने आटो रिक्शा पकड़ने प्लेटफार्म से बाहर का रुख किया।
☆
© श्री प्रतुल श्रीवास्तव
संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈