श्री कमलेश भारतीय
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ “हरियाणा की माटी से – गीता प्रेस , गोरखपुर का सम्मान” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
सन् 1923 में जय दयाल गोयनका और घनश्याम दास जालान ने मिलकर जो पौधा गीता प्रेस, गोरखपुर के रूप में रोपा था वह पूरी एक शताब्दी से फलता फूलता जा रहा है। इसके योगदान को देखते हुए गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है। हालांकि पुरस्कार की घोषणा के बाद रविवार को देर रात गीता प्रेस ट्रस्टी बोर्ड की बैठक हुई जिसमें यह आश्चर्यजनक फैसला लिया गया कि सम्मान तो स्वीकार करेंगे लेकिन एक करोड़ रुपये की राशि जो सम्मान में दी जायेगी उसे नहीं लेंगे ! यह भी एक बहुत बड़ी बात है। यह पुरस्कार मिलना निश्चित ही सम्मान की बात है लेकिन दान लेना हमारी परंपरा नहीं है। इसलिये हम इसमें मिलने वाली एक करोड़ रुपये की राशि स्वीकार नहीं करेंगे ! गीता प्रेस के प्रबंधक लालमणि त्रिपाठी ने बताया कि सन् 2022 -2023 में पंद्रह भाषाओं में प्रकाशित किताबों से दो करोड़,चालीस लाख रुपये की पुस्तकें पाठकों को उपलब्ध करवाई गयीं ! कम कीमत की पुस्तकों के बावजूद पुस्तकों का मीट्रिक मूल्य 111 करोड़ रुपये बनते हैं। गीता प्रेस , गोरखपुर सनातन धर्म के सिद्धांतों का दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाशक है।
हमारे देश भारत में संभवतः ऐसा कोई भारतीय नहीं होगा जिसने कभी न कभी गीता प्रेस , गोरखपुर के प्रकाशन से आई पुस्तक न पढ़ी होगी ! मुझे अपनी याद है जब प्राइमरी कक्षाओं में था सहपाठी शरत अपने बैग में छुपा कर गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तकें लाता था और इसके रंगीन प्रकाशन हम बच्चों को रंगीन टीवी की तरह बहुत लुभाते थे। पूतना का दूध पीते ही कैसे नन्हे कृष्ण उसे मार देते हैं यह दृश्य एकदम याद आ रहा है। गाय के पास खड़े उसके आगे पीत वस्त्रों में खड़े बालक कृषि भी याद हैं आज तक। कदम्ब के पेड़ों में छिपकर कैसे कैसे खेल रचते थे यह भी याद आता है। हम बच्चे कभी कभार इतने उतावले हो जाते कि छीना झपटी तक पहुंच जाते , फिर शरत चेतावनी देता कि यदि ऐसे करोगे तो किताबें नहीं लाऊंगा और हम सुधर जाते !
बड़ी बात कि किसी प्रकाशन के एक सौ साल पूरे हो जाना। आज डिजीटल या कहें कि ई बुक्स के जमाने में भी प्रकाशित पुस्तकें करोड़ों रुपये में पाठकों के हाथों में पहुंचती हैं , यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। भारतीय ज्ञानपीठ ही शायद इसके बाद ऐसा प्रकाशन हो जिसकी भूमिका साहित्य में उल्लेखनीय मानी जा सकती है लेकिन इसे आगे किसी प्रकाशन को बेच दिया गया जो हिंदी का दुर्भाग्य कहा जा सकता है। यहां से मिशन खत्म और सिर्फ व्यवसाय शुरू होता है। भारतीय ज्ञानपीठ युवाओं को भी न केवल पुरस्कार देता था बल्कि उनकी पुस्तक भी प्रकाशित करता था ! अब तो किसी के पुरस्कार की बात नहीं सुनी ! यह बात बिल्कुल फिर याद आती है प्रसिद्ध कथाकार राकेश वत्स की कि छपे हुए शब्द की शक्ति से मेरा विश्वास डगमगाया नहीं ! मेरी भी किताबें पहुंचाने की मुहिम से अब हिसार ही नहीं अन्य दूर दराजदे विदेश के मित्र भी परिचित हो चुके हैं और पूर्ण सहयोग मिलता है। तभी तो दुष्यंत कुमार कहते हैं :
कौन कहता है कि आसमान में सुराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो !
© श्री कमलेश भारतीय
पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी
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