श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)
हम सभी की भावनाओं का ख्याल रखते हैं, और महिलाओं का सम्मान ही नहीं, कद्र भी करते हैं। साहित्य ने भले ही हमारी कद्र ना की हो, हम संगीत के कद्रदान हैं, और फिल्मी संगीत सुन सुनकर ही आज कानसेन बन बैठे हैं।
हमें ना तो कोई शिकायत जमाने से है और न ही कोई शिकायत अपनी पत्नी से। जिस तरह संगीत ने पिछले सत्तर सालों से हमारा साथ निभाया है, हमारी धर्मपत्नी भी पचास वर्षों से हमारा साथ निभाती चली आ रही है।
चले थे साथ मिलकर, चलेंगे साथ मिलकर। तुम्हें रुकना पड़ेगा, मेरी आवाज सुनकर।।
संगीत की हमारी शिक्षा दीक्षा केवल रेडियो सीलोन सुनने तक ही सीमित रही। आप चाहें तो हमें एक अच्छा श्रोता कह सकते हैं। हुस्न, इश्क, जुल्फ और दामन जैसे शब्द हमने यहीं से सीखे हैं। सहगल का दौर निकल चुका था और अनारकली, बैजू बावरा, मुगले आजम और मेरे महबूब का जमाना था। सुरैया, शमशाद, नूरजहां और खुर्शीद के साथ लता, आशा, रफी, तलत, किशोर और राजकपूर की आवाज मुकेश, के तराने लोग गुनगुनाते रहते थे।
जब जीवन में कोई कद्रदान मिलता है, तो आपकी लाइफ बन जाती है। आप किसी के हसबैंड बन जाते हैं, कोई आपकी वाइफ बन जाती है। आपने, अपना बनाया, मेहरबानी आपकी ! हम तो इस काबिल ना थे, है कद्रदानी आपकी।।
मदनमोहन ही तो लाए थे वह खूबसूरत नगमा हमारे लिए !
आपकी नज़रों ने समझा, प्यार के काबिल हमें, और, जी हमें मंजूर है, आपका हर फैसला।
हर नजर कह रही, बंदा परवर शुक्रिया।
गृहस्थी की गाड़ी बस ऐसे ही तो चल निकली थी हमारी भी। सारे तीज, त्योहार और उत्सव कितने उत्साह से संपन्न होते थे। हरताली तीज हो अथवा करवा चौथ ! तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा। तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता। हमें अपने आप पर भरोसा नहीं होता था जब ऐसे गीत कानों में पड़ते थे; मैं तो भूल चली बाबुल का देस, पिया का घर प्यारा लगे।।
हमारे गीतकार वर्मा मलिक भी कम नहीं आग में घी डालने में ! तेरी दो टकियां दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए। हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी। लेकिन हमारी धर्मपत्नी बहुत समझदार निकली। छोड़ दें सारी दुनिया, किसी के लिए। ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए। प्यार से जरूरी कई काम हैं, प्यार सब कुछ नहीं आदमी के लिए।
लेकिन किसे पता था, उम्र के इस पड़ाव पर आकर हमें भी मदन मोहन का ही यह गीत भी सुनना पड़ेगा ;
कदर जाने ना
मोरा बालम, बेदर्दी
कदर जाने ना …
हम संगीत प्रेमी तरानों और पत्नी के तानों को बराबर का महत्व और सम्मान देते हैं। आखिर इन ५० बरसों में ऐसा क्या बदल गया कि बालम, बेदर्दी हो गए। हमने तो कभी नहीं कहा, सजनवा बैरी हो गए हमार। कुछ तो गड़बड़ है।।
उम्र के साथ अगर महिलाएं धार्मिक होती चली जाती हैं तो पुरुष पॉलिटिकल ! जिस टीवी पर कभी पूरा परिवार बैठकर दूरदर्शन देखता था, आजकल धर्मपत्नी में आस्था और सत्संग के संस्कार जाग गए हैं। न्यूज, शेयर मार्केट और कॉमेडी शो के लिए पति को मोबाइल और लैपटॉप का सहारा लेना पड़ता है। घर, घर नहीं, राज्यसभा लोकसभा टी वी हो चला है।
टेबल पर पत्नी चाय रखकर चली गई है, सीहोर वाले लाइव आ रहे हैं। नाश्ता कब का ठंडा हुआ पड़ा है। कानों में कुछ गर्मागर्म शब्द प्रवेश कर रहे हैं। पूरी जिंदगी इनके लिए खपा दी, लेकिन इन्होंने हमारी कभी कद्र ही नहीं की।।
लेकिन शब्द मोम बनकर नहीं पिघल रहे। लता का मधुर स्वर याद आ रहा है ;
लाख जतन करूं
बात न माने जी
बात न माने
मेरा दरद न जाने जी।
कदर जाने ना
हो कदर जाने ना
मोरा बालम बेदर्दी
कदर जाने ना …
सोचता हूं, अगर अभी भी कद्र नहीं जानी, तो बहुत देर हो जाएगी। घर घर की यही कहानी है। जागो बेदर्दी बालमों, अब तो जागो।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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