श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “ड ऽऽ र और भय “।)

?अभी अभी # 147 ⇒ ड ऽऽ र और भय? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

कैसी कैसी जोड़ी बनाई है भगवान ने, राम और श्याम और जय वीरू की जोड़ी तो ठीक, डर और भय की भी जोड़ी। दोनों बिलकुल जुड़वा लगते हैं, हूबहू डिट्टो एक जैसे, शक्ल सूरत से रंगा बिल्ला माफिक, डरावने और भयंकर।

अजी साहब छोड़िए, सब आपका मन का वहम है, डर और भय की तो कोई शक्ल ही नहीं होती। जंगल मे

अकेले जाओ तो डर लगता है, चिड़ियाघर में कितना मजा आता है। जब तक हम सुरक्षित हैं, निडर और निर्भय हैं, जहां किसी ने सिर्फ बोला सांप, बस हो गया कबाड़ा। भय का सांप अथवा सांप का भय तो हमारे अंदर बैठा है।

कहीं डंडे का डर तो कहीं बंदूक का डर, बेचारे बेजुबान जानवर को भी हम चाबुक से डराते हैं।

वाह रे सर्कस के शेर।।

इतना बड़ा शब्दकोश आखिर बना कैसे ! क्या कम से कम शब्दों से काम नहीं लिया जा सकता, प्यार मोहब्बत, लाड़ प्यार ! बच्चे को लाड़ मत करो प्यार ही कर लो। हटो जी, ऐसा भी कभी होता है। क्या एक भगवान शब्द से आपका काम चल जाता है। इतने देवी देवता, एक दो से ही क्यों नहीं काम चला लेते।

हर शब्द के पीछे एक अर्थ छुपा होता है। आपको डरावने सपने आते हैं, आपकी नींद खुल जाती है, अरे यह तो सपना था, कोई डर की बात नहीं ! आपके अवचेतन में भय के संस्कार है, इसीलिए तो डरावने सपने आते हैं। छोटे छोटे बच्चे नींद में चमक जाते हैं, एकदम रोना शुरू कर देते हैं, उनके सिरहाने चाकू रखा जाता है। चाकू सुरक्षा कवच है और गंडा तावीज भी। मानो या ना मानो।।

डर से ही डरावना शब्द बना है, और भय से भयंकर ! जगह जगह भयंकर सड़क दुर्घटना की खबरें मन को व्यथित कर देती हैं। कुछ लोग इतनी तेज गाड़ी चलाते हैं भाई साहब, कि उनके साथ तो बैठने में भी डर लगता है।

खतरों से खेलना कोई समझदारी नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।

हमें बचपन से ही डराया गया है, कभी भूत से तो कभी बाबा से ! आजकल के बच्चे भूत से नहीं डरते, क्योंकि वे ब्ल्यू व्हेल जैसे खेल खेलते हैं। अब हम बाबाओं से डरते नहीं, उनसे ज्ञान प्राप्त करने जाते हैं। वे भी हमें ज्ञान बांटते हैं, भगवान से डरो।।

पढ़ने से कैसा डरना, लेकिन सबक याद नहीं होने पर मास्टरजी की छड़ी से तो डर लगता ही था। कहीं परीक्षा का डर तो कहीं साइंस मैथ्स का डर। हमारे गणित का डर तो अभ्यंकर सर भी दूर नहीं कर पाए।

कोई अमर नहीं, हमारा शरीर नश्वर है, फिर भी कोई मरना नहीं चाहता। शुभ शुभ बोलो। मरने की बात अपनी जुबान पर ही मत लाओ, क्योंकि हम सबको मृत्यु का भय है। हम नचिकेता नहीं जो यम की छाती पर जाकर खड़े हो जाएं।।

क्या आपको नहीं लगता, ये डर और भय और कोई नहीं, जय विजय ही हैं। मैं आपको जय विजय की कथा नहीं सुनाऊंगा, लेकिन ये कभी वैकुंठ के द्वारपाल थे, बेचारे शापग्रस्त हो गए और आसुरी शक्ति बने भगवान विष्णु को फिर भी नहीं छोड़ रहे। कभी रावण कुंभकर्ण तो कभी कंस शिशुपाल। आज के हिटलर स्टालिन भी शायद ये ही हों।

डर और भय ही कलयुग के जय विजय हैं। अगर आपने इन पर काबू पा लिया तो समझो आपका स्वर्ग का नहीं, वैकुंठ का टिकिट कट गया, यानी आप जन्म मृत्यु के चक्कर से बाहर निकल गए।।

ये सब कहने की बातें हैं। क्या आपको आज के हालात से डर नहीं लगता। क्या आप नहीं चाहते, लोग निडर होकर चैन की नींद सोएं। इसलिए हमें हमेशा जागरूक रहना होगा, खतरा देश के बाहर से भी है और अंदर भी। हमें देश की, संविधान की और लोकतंत्र की रक्षा करनी है।

हम पहले लोगों को भयमुक्त वातावरण देंगे और बाद में अपने अंदर के जय विजय यानी डर और भय को भी देख लेंगे। आखिर इतनी जल्दी भी क्या है। सुना है नेटफ्लेक्स पर कोई बढ़िया हॉरर मूवी लगी है, मजेदार है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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