श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रशंसक”।)
अभी अभी # 183 ⇒ प्रशंसक… श्री प्रदीप शर्मा
गुण के गाहक सहस नर !
यह मनुष्य का स्वभाव है कि उसे जो चीज पसंद आती है, वह उसका प्रशंसक बन जाता है। हमें तुमसे प्यार कितना, ये हम नहीं जानते, मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना ! यह हकीकत भी हो सकती है और अतिशयोक्ति भी, लेकिन इसमें भी प्रशंसा का भाव ही निहित है। गुणगान भी प्रशंसा ही है, और तो और किसी चीज का विज्ञापन भी प्रशंसा ही। भले ही प्रशंसा आजकल पेशा बन गया हो, लेकिन सच तो यह है कि प्रशंसा हर इंसान की कमजोरी है। कुछ पति इतने कंजूस होते हैं कि दुनिया भर की तारीफ करेंगे, लेकिन कभी अपनी पत्नी की प्रशंसा में एक शब्द नहीं बोलेंगे। दो मीठे बोल ही तो प्रशंसा है। प्रशंसा जीवन का टॉनिक है। तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया। हम सब में एक प्रशंसक छुपा है।
कल अमिताभ बच्चन के प्रशंसकों का दिन था। अमिताभ की एक पुरानी फिल्म थी, सौदागर, जरा उसके इस गीत पर गौर फरमाइए ;
हर हंसीं चीज का मैं तलबगार हूं।
रस का, फूलों का,
गीतों का बीमार हूं।।
कुछ ऐसे ही भाव इस गीत में भी देखे जा सकते हैं ;
आने से उसके आए बहार
जाने से उसके जाए बहार
बड़ी मस्तानी है, मेरी महबूबा।
मेरी जिंदगानी है, मेरी महबूबा ;
रुत ये सुहानी है, मेरी महबूबा।।
एक प्रशंसक कोई संपादक, समीक्षक, आलोचक अथवा समाज सुधारक नहीं होता। एक प्रशंसक के लिए कोई स्कूल, कॉलेज नहीं, कोई कोचिंग क्लास नहीं, कोई डिग्री डिप्लोमा नहीं, उसका कवि, लेखक अथवा साहित्यकार होना भी जरूरी नहीं ! एक अंगूठा छाप, निरक्षर भी किसी का प्रशंसक हो सकता है। प्रशंसा पर किसी का कॉपीराइट नहीं।।
प्रेम में तो फिर भी ढाई अक्षर है, फैन जी हां, फैन में तो सिर्फ दो अक्षर है।
किसी का मुरीद होना, अथवा प्रशंसक होना क्या इतना आसान है। हमें पता ही नहीं चलता, हम कब किसके प्रशंसक बन जाते हैं। उसकी तारीफ के पुल बांधने लगते हैं, उसकी बुराई नहीं सुन सकते, लोगों से लड़ने लग जाते हैं। क्या किसी का प्रशंसक होना, उसकी गिरफ्त में होना नहीं। ऐसे ही प्रशंसक जब किसी गलत व्यक्ति या विचारधारा के प्रशंसक हो जाते हैं, तो गिरफ्तार भी हो जाते हैं।
मैं भी एक इंसान हूं, और किसी का प्रशंसक भी ! एक लंबी चौड़ी फेहरिस्त है, जो अगर शुरू हुई, तो खत्म होने का नाम नहीं लेगी। कहीं मेरी स्मरण शक्ति जवाब दे देगी तो कहीं मेरे शब्द और मेरी जुबां। एक शब्द है चुनिंदा जिसमें शामिल हैं मोहम्मद रफी, महमूद और अमीन सयानी, लता, सुरैया और खुर्शीद, मंटो, मोहन राकेश और शैलेश मटियानी, अज्ञेय, निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वेद, परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल, विनोद खन्ना, जगजीत सिंह और गिरीश कर्नाड। पंडित जसराज, भीमसेन जोशी और कुमार गंधर्व, साहिर, शैलेंद्र और संगीतकार उषा खन्ना।।
जो इन चुनिंदा में शामिल नहीं, उन सबमें वे शामिल हैं, जिनके आप भी प्रशंसक हैं। सूर, तुलसी, कबीर और मीरा बाई के तो सब प्रशंसक हैं, अगर छूट जाती हैं तो सहजोबाई। इन्हें सुना नहीं जाता, गुना जाता है। जब किशोरी अमोणकर गाती हैं, म्हारो प्रणाम, बांके बिहारी जी, तो वही प्रशंसा स्मरण, कीर्तन और भजन में परिवर्तित हो जाती है। सहज समाधि लग जाती है।
प्रशंसा क्या है, राम का गुणगान, कृष्ण का ध्यान ही तो उस निर्गुण, निराकार, ओंकार की आराधना है। जहां साकार निरंकार एक होते हैं, यही वह सृष्टि है, वही सगुण है और वही निर्गुण।
जो घट घट में व्याप्त है, हम तो वास्तव में उसी के प्रशंसक हैं ;
जाकी रही भावना जैसी।
प्रभु मूरत, तिन देखी तैसी।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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