श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दर और द्वार”।)

?अभी अभी # 185 ⇒ दर और द्वार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

किसी के दर तक तो पहुंच गए, लेकिन अगर द्वार ही बंद हो, तो दस्तक तो देनी ही पड़ती है ;

आशिक हूं तेरे दर का

ठुकरा मुझे ना देना।

आया हूं बन भिखारी

झोली तो भर ही देना।।

अतिथि तो भगवान होता है। पता पूछते पूछते घर तक तो आ गए, द्वार भी खुले मिले, फिर भी आपको देहरी तो लांघनी ही पड़ेगी। देहरी को ड्यौढ़ी भी कहते हैं। दर और द्वार की यह लक्ष्मण रेखा है। वहीं पहले स्वागत होता है, उसके पश्चात् ही गृह प्रवेश होता है।

मंदिर की भी चौखट होती है, मंदिर के द्वार भी होते हैं, और ठाकुर जी के पट जब खुलते हैं, तब ही दर्शन हो पाते हैं। जब उनसे कुछ मांगना होता है, तो चौखट पर नाक भी रगड़नी पड़ती है। परमात्मा से कैसी लाज, कैसी शरम।।

कभी कभी उल्टी गंगा भी बह जाती है। तेरे द्वार खड़ा भगवान, भगत भर दे रे झोली। यह जीव नहीं जानता, उसके दर पर जो खड़ा है, वह दाता है या भिखारी। जब कि सच तो यह है, भिखारी सारी दुनिया, दाता एक राम।

आजकल द्वार, door अथवा दरवाजा कहलाता है, देहरी का भी कुछ पता नहीं, बस एक डोअरमेट नजर आती है, घर के बाहर। कोई कुंडी नहीं, कोई सांकल नहीं, डोअरबेल बजाई जाती है।। दरवाजे के पहले दो पाट होते थे, दरवाजा आधा भी खोला जा सकता था, आज का द्वार वन पीस होता है।

जिसमें सुरक्षा के लिए ना केवल एक की होल बना होता है, बाहर सीसीटीवी कैमरे और डोअर अलार्म आगंतुक की पूर्व सूचना भी दे देता है। कहीं कोई साधु के वेश में रावण ना हो।।

लेकिन इसी जीव की कभी ऐसी भी अवस्था आती है जब सजन के लिए द्वार नहीं खोलना पड़ता और ना ही अपने प्रीतम प्यारे के लिए दर दर भटकना पड़ता है। जब खिड़की है तो द्वार का क्या काम ;

जरा मन की किवड़िया खोल

सैंया तोरे द्वारे खड़े …

मीरा जानती थी, इस भेद को, और शायद इसीलिए वह इतने सरल शब्दों में गूढ़ ज्ञान की बात कर पाई ;

घूंघट के पट खोल रे

तोहे पिया मिलेंगे।

धन जोबन का गरब ना कीजे

झूठा इनका मोल रे

तोहे पिया मिलेंगे।।

अज्ञान, अस्मिता और अहंकार का पर्दा ही तो वह घूंघट है, जिसे हमें हटाना है। अगर हमारे मन का द्वार खुला है, तो मन के मीत को क्या जरूरत हमारे दर पर आकर, द्वार पर दस्तक देने की। बैक डोअर एंट्री कहें, अथवा इमरजेंसी डोअर, मकसद तो दीदारे यार से है। जरा हसरत तो देखिए इस दीवाने की ;

मन मंदिर में तुझको बिठा के

रोज करूंगा बातें।

शाम सवेरे हर मौसम में

होगी मुलाकातें।।

यह हर पल जागने का, इंतजार का खेल है।

दर हो या द्वार, अंदर हो या बाहर, बस एक आस, एक विश्वास ;

जरा सी आहट होती है

तो दिल सोचता है

कहीं ये वो नहीं

कहीं ये वो तो नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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