श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तीन पत्ती …“।)
अभी अभी # 187 ⇒ तीन पत्ती… श्री प्रदीप शर्मा
तीन पत्ती – (वैधानिक स्पष्टीकरण ; यह शरीफों का नहीं, बुद्धिमानों का खेल है।)
शुद्ध हिंदी में आप इसे जुआ कह सकते हैं, और शिष्ट भाषा में फ्लैश। मैं एक शरीफ इंसान हूं, इसलिए कोशिश करके भी तीन पत्ती नहीं खेल सकता। यह फूल पत्तियों का नहीं, ताश के बावन पत्तों का खेल है। जो मुझ जैसे लोग तीन पत्ती का मतलब नहीं जानते, वे सत्ते पे सत्ता और नहले पर दहला का अर्थ जरूर जानते हैं। ये दोनों बॉक्स ऑफिस की किसी जमाने की हिट फिल्म थी। वैसे सन् १९७३ में गुलाम बेगम बादशाह फिल्म भी आई थी, अच्छी भली शान से चल रही थी, अचानक चली गई।
जानकर सूत्रों के अनुसार तीन पत्ती केवल दस पत्तों का ही खेल है, और जिसके पास तीन इक्के, वह मुकद्दर का सिकंदर। जो ताश नहीं खेलते, वे भी जानते हैं, तीन इक्का क्या होता है। रेडियो पर कभी अमीन सयानी की आवाज गूंजती थी, मोटा दाना, मीठा स्वाद, तीन इक्का तुअर दाल, महादेव सहारा एंड सन्स, इंदौर। तब रेडियो पर इंदौर का नाम सुन बड़ा गर्व होता था।।
तीन का संबंध पत्ती से ही नहीं, बत्ती से भी है। इंदौर में पहला ट्रैफिक सिग्नल यानी तीन बत्ती, जेलरोड चौराहे पर लगी थी, और लोग उसे उत्साह में तीन बत्ती चौराहा कहने लगे थे। आज भी इंदौर में तीन पुलिया भी है और तीन इमली चौराहा भी। पोलोग्राउंड पर तीन बड़ी बड़ी चिमनियाँ कभी इंदौर की पहचान थी। आज उसी शहर में कपड़ा मिलों की चिमनियों का धुआं नहीं, चारों ओर वाहनों का धुआं और ध्वनि प्रदूषण व्याप्त है।
छोटी मोटी बुराई हर इंसान में होती है। हमारी मोटी बुद्धि में भी ताश जैसी बुराई बचपन से ही मौजूद थी। हम भाई बहन, रंग मिलावनी, सत्ती लगावनी, और तीन दो पांच से कभी आगे नहीं बढ़ पाए। बड़ों के सत्संग ने हमें आगे चलकर चौकड़ी और छकड़ी के लायक भले ही बना दिया हो, लेकिन चतुराई और हाथ की सफाई में हमने सबको निराश ही किया। इस निराश नर को कोई अपना पार्टनर बनाने को ही तैयार नहीं होता था।।
वे दिन भी क्या दिन थे। अक्सर ऑफिस और दफ्तरों में ट्रिप, पिकनिक और बगीचों में दाल बाफले की फेयरवेल पार्टियां हुआ करती थी। कभी मांडू जा रहे हैं तो कभी उदयपुर !
सफर तो अंताक्षरी से कट जाता था, लेकिन वहां जाकर दो ग्रुप हो जाते थे। एक शरीफ गृहस्थों का तंबोला ग्रुप और एक सयानों का तीन पत्ती ग्रुप।
एक माचिस की काड़ी से लोग फुल हाउस खेल जाते थे, और हम जैसे लोग two fat ladies सुनकर आपस की महिलाओं को देखा करते थे और हमारी एक भी लाइन क्लियर नहीं हो पाती थी।
बहुत क्लब हैं हमारे शहर में लायंस और रोटरी के अलावा भी। एक यशवंत क्लब भी है, जहां राजा महाराजा, ओल्ड डेलियन्स और नामी गिरामी क्रिकेट खिलाड़ियों के अलावा कई प्रसिद्ध उद्योगपति, व्यापारी और सेलिब्रिटीज सदस्य होते हैं। खेलों की कोई सीमा नहीं होती। कई हेल्दी गेम्स खेले जाते हैं यहां, जिनमें एक गेम ब्रिज भी अधिक प्रचलित है। जिसका दिमाग फ्लैश में ही नहीं चलता, उसके दिमाग की बत्ती ब्रिज जैसे गेम में कैसे चलेगी। चैस यानी शतरंज जैसा ही दिमाग का खेल है ब्रिज।
हम तो हावड़ा ब्रिज देखकर ही निहाल हो गए।।
आज की युवा पीढ़ी और कम उम्र के बच्चों को जब डेस्कटॉप और मोबाइल पर सभी आउटडोर और इनडोअर गेम्स खेलते देखता हूं, तो अपनी बुद्धि पर तरस आता है। हम जीवन भर बादाम खाते रहे और लगड़ी, खो खो, कबड्डी और सितोलिया खेलते रहे, और आज की पीढ़ी मैग्गी, पास्ता, बर्गर और चाइनीज खा खाकर भी हमसे कई किलोमीटर आगे निकल गई।
अगर हमें आगे बढ़ना है तो समय के साथ तो चलना ही पड़ेगा। तीन पत्ती जैसे वाहियात खेलों से ही दिमाग की बत्ती नहीं जलती। राजनीति भी एक अच्छा खेल है। खेल का एक ही नियम, उगते सूरज को सलाम।। शुभ नवरात्र !
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© श्री प्रदीप शर्मा
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