श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समय का पंछी”।)

?अभी अभी # 193 ⇒ समय का पंछी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 समय का पंछी उड़ता जाए! आपके पंख नहीं, पांव हैं, आप समय के साथ चल तो सकते हैं, उड़ नहीं सकते। हां, समय बचाने के लिए हवाई जहाज में उड़ जरूर सकते हैं। जो इस तरह समय बचाते हैं, उन्हें समय बहुत महंगा पड़ता है, लेकिन उन्हें कम समय में पैसा कमाने का गुर भी आता है।

किसी के लिए पैसा ही समय है और किसी के लिए समय ही पैसा। जिनके पास पैसा ही नहीं, उन्हें समय खर्च करने से कौन रोक सकता है।

पैसे वालों का समय बहुत कीमती होता है। वे समय बेचते हैं। डॉक्टर वकील से आपको समय खरीदना पड़ता है, लेकिन उसमें भी वे भाव खाते हैं, और तगड़ा खाते हैं।।

बचपन में हमारे पास इतना समय था, कि हमें घड़ी देखना ही नहीं आता था। जब मां उठाती, तब सुबह हो जाती थी, और जब मां सुलाती, शाम हो जाती थी। आज जिंदगी की शाम में हमें जगाने, सुलाने वाला कोई नहीं, जब जागे तभी सवेरा और आंख बंद हुई तभी रात।

पंछी की तरह हमने भी समय को घड़ी रूपी पिंजरे में कैद कर लिया, और खुश हो गए। समय आत्मा की तरह अजन्मा, अमर और अभेद्य है। इस शरीर में आत्मा जीवात्मा बन गई और हमने समय देखने के लिए, घड़ी में चाबी भरना शुरू कर दिया। समय हमारे लिए खिलौना हो गया। जितनी भारी चाबी, उतना चला खिलौना।।

समय का भी खेल देखिए!

जो अटल था, वह भी डिजिटल हो गया। आज भी मेरी दीवार घड़ी निप्पो और एवरेडी के सेल पर ही सांस लेती है। क्या समय की भी सांस फूलती है, क्या समय को भी वेंटिलेटर पर रखना पड़ता है। आज भी समय देखने के लिए हम घड़ी पर ही तो मोहताज हैं। समझ में नहीं आता, घड़ी समय से चलती है, या समय घड़ी से चलता है।

आप घड़ी को आगे पीछे तो कर सकते हैं, समय को नहीं कर सकते। हम समय के साथ चल सकते हैं, शायद समय से पहले भी चल लेते हों, लेकिन समय से आगे कभी नहीं निकल सकते। जो भी है, बस यही एक पल। पलक झपकते ही क्या से क्या हो जाता है। समय का पंछी हाथ से उड़ जाता है।।

समय तो समय होता है, किसी के लिए अच्छा होता है, तो किसी के लिए बुरा। हम भले ही समय घड़ी में देखते हों, खराब समय आने पर अक्सर मुंह से निकल ही जाता है, क्या मनहूस घड़ी है, लेकिन तब भी हम अपनी घड़ी को नहीं, समय को ही कोस रहे होते हैं। बेचारी घड़ी का क्या दोष, वह तो सगाई में मिली थी।

समय को तो हम बांट नहीं सकते, चलिए, घड़ी को ही बांट लेते हैं। सगाई की घड़ी को आप मिलन की घड़ी कह सकते हैं, शुभ शुभ बोलेंगे हम तो, जुदाई की घड़ी की बात कतई नहीं करेंगे, क्योंकि ;

बात मुद्दत के ये घड़ी आई।

आप आए, तो जिन्दगी आई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments