श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बिस्तर छोड़ने का गम“।)
अभी अभी # 210 ⇒ बिस्तर छोड़ने का गम… श्री प्रदीप शर्मा
कहते हैं, अन्याय और अत्याचार को सहन नहीं करना चाहिए, मनुष्य एक स्वतंत्र प्राणी है, उसे अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहते हुए, हर ज़ोर जुल्म का प्रतिरोध करना चाहिए। लेकिन परेशानी तो तब खड़ी होती है, जब इंसान खुद ही अपना दुश्मन हो। कोई अगर अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार रहा हो, और बचाओ बचाओ, चिल्ला रहा हो, तो कोई क्या करे।
सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूं ही तमाम होती है। जब दर्द हद से गुजर जाता है, तब ही उसकी दवा होती है। आज जब हद की भी इन्तहा हो गई तब आखिर दर्द की दास्तां बयां हो ही गई।।
आदमी आदतों का गुलाम होता है। अगर उसके जीवन में थोड़ा नियम, संयम और अनुशासन हो, तो वह जानवर से इंसान भी बन सकता है। मुझे याद आते हैं मेरे वो स्वर्णिम दिन, जब मैं सुबह सुबह आराम से बिस्तर में मीठी नींद लेता रहता था, और बाहर पक्षी चहचहा रहे होते थे, दूध वाला, अखबार वाला, और स्कूल जाने वालों की चहल पहल और धर्मपत्नी की खटर पटर भी मेरी तंद्रा रूपी समाधि को भंग नहीं कर पाती थी। आखिर मैं कमाता खाता था, आठ घंटे की नींद पर मेरा जन्म सिद्ध अधिकार था।
लेकिन जब से मैं, बिना थके रिटायर हुआ यानी सेवानिवृत्त हुआ, अचानक मेरा सोया जमीर जाग उठा। सुबह पक्षियों को मुझसे पहले जागता देख, मुझे अपराध बोध होने लगा।
उधर व्हाट्सएप ज्ञान भी early to bed and early to rise की बचपन की नर्सरी राइम की याद दिलाने लगा। ब्लड प्रेशर, कोलोस्ट्रोल और शुगर से मुझे डराने लगा और मेरा जीवन अचानक अनुशासन पर्व में परिवर्तित होने लगा।।
अब मेरा सोया विवेक जाग उठा था। एक बार विवेक जाग जाए, तो फिर अपने बाप की भी नहीं सुनता। मैने उसे बहुत समझाया, देखो बिहेव लाइक अ नॉर्मल मैन। थोड़ा सहज हो जाओ, इस उम्र में कहां तुम्हें तोरण मारने जाना है। खाओ, पीयो मस्त रहो।
लेकिन विवेक ने मेरी एक ना सुनी। वह मुझे एक अच्छा संयमित इंसान बनाने के चक्कर में, बुरी तरह मेरे पीछे पड़ ही गया। अब तो विवेक ही मुझे जगाता है और विवेक ही मुझे सुलाता भी है।
आज भी यही हुआ। मैं सोया हुआ था, और मेरा विवेक भी सोया हुआ था। रोज की तरह विवेक मुझसे पहले उठ गया और बोला, चलो उठो, बिस्तर छोड़ो, तुम्हारे उठने का टाइम हो गया। लेकिन आज अचानक आलस्य और मेरी अंतरात्मा ने उठने से मना कर दिया। आज मेरा भी मन किया, तानकर सोऊं, रोज जल्दी उठकर कौन सा तीर मार लेते हैं।
इतनी गुलामी भी ठीक नहीं।।
सुबह बिस्तर छोड़ने का दुख किसने नहीं झेला ! बचपन में कड़कती ठंड में स्कूल जाना अथवा सुबह जल्दी रोजी रोटी के लिए जुट जाना, और घर की कामकाजी महिलाओं की तो पूछिए ही मत। इसे कर्तव्य कहें अथवा मजबूरी, काहे का अनुशासन और काहे का विवेक, हम सब परिस्थितियों के गुलाम हैं।
विवेक कहें अथवा अंतरात्मा, आजकल मार्केटिंग के जमाने में असली नकली का भेद मिट गया है। पहले राजनीति में अंतरात्मा की आवाज पर दलबदल होता था, हृदय परिवर्तन होता था, लेकिन अब तो पापी तापी भी शरणागति होने लगे हैं। सभी साधु संत और महात्मा ज्ञान, विवेक और वैराग्य की दुकान खोले बैठे हैं। घूंघट के पट खोल, तुझे पिया मिलेंगे। सभी आपको जगाने में लगे हैं।।
आखिर विवेक को भी चाहिए, वह थोड़ा अक्ल से काम ले। 24 x 7 भी विवेक का जागते रहना ठीक नहीं। मोदी जी भी अठारह घंटे ही काम करते हैं। वे सिर्फ विवेक से नहीं, अक्ल से भी काम लेते हैं। यहां तक कि, उनकी अक्ल के आगे लोगों का विवेक तक काम नहीं करता।
आज भले ही मैंने विवेक की सुन ली हो और मन मारकर बिस्तर छोड़ दिया हो, कल से मैं भी अक्ल से ही काम लूंगा। अपनी मर्जी से सोऊंगा, अपनी मर्जी से बिस्तर छोड़ूंगा।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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