श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “टेढ़े मेढ़े सपने…“।)
अभी अभी # 222 ⇒ टेढ़े मेढ़े सपने… श्री प्रदीप शर्मा
मुझमें अष्टावक्र जितनी प्रतिभा कहां, योगगुरु जैसे कहां मैं अपने शरीर को तोड़ मरोड़ सकता, नजर कमज़ोर है लेकिन बाबा की तरह टेढ़ी नहीं, मैगी और कुरकुरे मुझे पसंद नहीं, फिर भी, न जाने क्यूं, टेढ़े मेढे़ सपनों पर मेरा बस नहीं।
हम कितने सीधे सादे हैं, अथवा कितने टेढ़े, यह या तो हम जानते हैं अथवा ईश्वर। क्या हम जैसे हैं, वैसे ही सबको नजर आते हैं। कभी झुकना और कभी तनकर खड़े रहना तो हमें खूब आता है। एक हाथ से ताली नहीं बजती। कई बार हमने भी टेढ़ी उंगली से ही घी निकाला है। फिर भी न जाने क्यूं, नींद में भी हम, अपने सपनों के मालिक नहीं हो पाए। ।
जाग्रत अवस्था में तो मन हमारी बात मान लेता है, हम जहां चाहें वहां दिखावा भी कर लेते हैं, और परिस्थिति अनुसार सच और झूठ का तालमेल बिठाकर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, कभी साधु तो कभी शैतान का रूप धारण कर लेते हैं, लेकिन अवचेतन में हमारा यह मन बेलगाम हो जाता है। इस पर किसी की जोर जबरदस्ती नहीं चलती। शतरंज के मोहरे की तरह कभी घोड़े जैसे ढाई घर तो कभी ऊंट जैसी तिरछी चाल। सच में तो, सपने में हम खुद किसी के मोहरे नजर आते हैं।
काश कोई ऐसा रिमोट कंट्रोल होता जिससे हम अपने सपनों पर लगाम लगा पाते, इसे अपनी मनमर्जी मुताबिक चलने के लिए मजबूर कर पाते। आज हमारे पास हर चीज का रिमोट कंट्रोल है, टीवी, मोबाइल, पंखा, एसी, कार, रेडियो, घर के दरवाजे और अन्य कई इलेक्ट्रिक उपकरण। बस एक नींद और नींद के पश्चात बिन बुलाए आने वाले टेढ़े मेढे सपनों को छोड़कर। ।
सपने हमारी सफलता, असफलता के प्रतीक हैं। दबी हुई इच्छाएं, कष्ट, संघर्ष और मानसिक तनाव, मान अपमान, प्रकट और परोक्ष भय, सबका काला चिट्ठा होता है इन सपनों में। सपने कभी आगाह करते हैं तो कभी रास्ता भी सुझाते हैं। और कभी कभी तो बड़े विचित्र तरीके से पेश आते हैं।
कहते हैं, नींद में हमारा मन सो जाता है और अवचेतन मन उसका चार्ज ले लेता है। अब हमारा रिमोट उसके हाथ। मंत्री महोदय आराम से आलीशान बंगले में सो रहे हैं, मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं, अचानक कहीं से एक हाथ आता है और गाल पर तड़ाक से तमाचे की आवाज से उनकी नींद खुल जाती है, देखते हैं कोई नहीं है, एक मच्छर ने गाल पर तब काटा था, जब सपने में पिताजी आ गए थे, और मंत्री महोदय अपने बचपन में चले गए थे। शर्म से अपना गाल सहलाया, अपनी बचपन में की गई कारगुज़ारियों और गुस्ताखियों पर खुद ही मुस्काए, और करवट बदलकर निश्चिंत हो, सो गए। सपना टेढ़ा है, पर मेरा है। ।
© श्री प्रदीप शर्मा
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