श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाय और गौ ग्रास…“।)
अभी अभी # 254 ⇒ गाय और गौ ग्रास… श्री प्रदीप शर्मा
(Cow and grass)
गाय को हम गौ माता मानते हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह हमें दूध देती है। हम गौ सेवा इसलिए भी करते हैं, कि वेदों के अनुसार गाय में ३३ कोटि देवताओं का वास होता है। इन ३३ प्रकार के देवताओं में १२ आदित्य, ८ वासु, ११ रुद्र और २ आदित्य कुमार हैं। केवल एक गाय की सेवा पूजा से अगर ३३ कोटि देवताओं का पूजन संपन्न हो जाता है, तो यह सौदा बुरा नहीं है।
अन्य चौपायों की तरह गाय भी पशुधन ही है और घास ही खाती है, कोई चाउमिन नहीं।
हमने बचपन में कहां वेद पढ़े थे। बस गाय पर निबंध ही तो पढ़ा था।
घरों में पहली रोटी गाय की बनती थी, और आज भी बनती चली आ रही है। एक रोटी से कहां गाय का पेट भरता है। पेट तो उसका भी घास से ही भरता है। उसके लिए हमारी रोटी, ऊंट के मुंह में जीरे के समान, एक ग्रास ही तो है। कई अवसरों पर भोजन के पहले गऊ ग्रास भी निकाला जाता है। लेकिन प्रश्न भाव और संतुष्टि का है।
इसे संयोग ही कहेंगे कि घास को अंग्रेजी में भी ग्रास ही कहते हैं। घास से भले ही गौ माता का पेट भरता हो, लेकिन मन तो उसका भी, उसके लिए एक ग्रास जितनी, एक रोटी से ही भरता है। आप गाय को अगर रोज घास नहीं खिला सकते, तो कम से कम गौ ग्रास तो खिला ही सकते हैं।।
बचपन में हमने कहां वेद पढ़े थे। हमारे मोहल्ले में पाठशाला थी, गुरुकुल नहीं। हर मकर सक्रांति को पिताजी के साथ जाते और नन्दलालपुरा से धडी भर नहीं, छोड़ के गट्ठर के गट्ठर, साइकिल के पीछे बांधकर ले आते। हमारे लिए तो छोड़ हमेशा ही आते थे, लेकिन ये छोड़ विशेष रूप से गाय के लिए आते थे।
हम तब भाग्यशाली थे, तब सड़कों पर वाहन से अधिक गाय नजर आती थी। हमारी बालबुद्धि समझ नहीं पाती। गाय को छोड़ खिलाना है, खिलाओ, लेकिन छोड़ के दाने तो निकाल लो। लेकिन हमारी मां हमें समझाती, ये छोड़ गाय के लिए हैं, तुम्हारे लिए अलग से रखे हैं।।
आज घर में मां नहीं है, मकर सक्रांति के दिन, छोड़ खिलाने के लिए आसपास गाय भी नहीं है। गौ शालाओं में गाय की अच्छी सेवा हो रही है और हम तिल गुड़ खाकर और मीठा मीठा बोलकर उत्सव मना रहे हैं।
स्मार्ट सिटी बनने जा रहे महानगर की बहुमंजिला इमारतों की खिड़कियों से जितना आसमान दिख जाए, देख लो, जितनी पतंगें लोग उड़ा सकते हैं, उड़ा ही रहे हैं। पतंग काटने का सुख, और कटने का दुख, दोनों कितने अच्छे लगते हैं। समय कहां रुकता है, जीवन चलने का ही तो नाम है। अच्छे दिन आज भी हैं, फिर भी किशोर कुमार का यह गीत गुनगुनाने का मन करता है ;
अल्बेले दिन प्यारे
मेरे बिछड़े साथी सारे
हाय कहां गए,
हाय कहां गए ..
कोई लौटा दे मेरे
बीते हुए दिन।
बीते हुए दिन वो हाय
प्यारे पल छिन।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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