श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मैं ई -रिक्शा वाला…“।)
अभी अभी # 267 ⇒ मैं ई -रिक्शा वाला… श्री प्रदीप शर्मा
रिक्शे से ई – रिक्शे तक के सफर में,आज अनायास ही फिल्म छोटी बहन (१९५९) का यह गीत मेरे होठों पर आ गया ;
मैं रिक्शा वाला,
मैं रिक्शावाला
है चार के बराबर
ये दो टांग वाला।
कहां चलोगे बाबू
कहां चलोगे लाला।।
यानी इन पैंसठ वर्षों के सफर में मेरे जैसा एक आम आदमी केवल रिक्शे से ई -रिक्शे तक का सफर ही तो तय कर पाया है।
इस गीत के जरिए गीतकार ने कुछ मूलभूत प्रश्न उठाए थे, जिनके उत्तर हम आज भी तलाश रहे हैं। रोटियां कम हैं क्यों, क्यों है अकाल। क्यों दुनिया में ये कमी है, ये चोरी किसने की है, कहां है सारा माल ? और ;
मैं रिश्ते जोडूं दिल के,
मुझे ही मंजिल पे, कोई ना पहुंचाए, कोई ना पहुंचाए।।
रिक्शे के बहाने, शैलेंद्र ऐसे एक नहीं, कई प्रश्न छोड़ गए। फिल्म छोटी बहन में महमूद हाथ रिक्शा चलाते नजर आते हैं। आदमी की तरह रिक्शे ने भी बहुत लंबा सफर तय किया है। बीच में तीन पहिए का साइकिल रिक्शा भी आकर चला गया। उसमें वही रिक्शेवाला दो दो सवारियों को बैठाकर साइकिल चलाता था।
तपती दुपहरी हो अथवा सर्दी या बरसात, भीड़ भरे बाजार में, एक अथवा दो सवारियों के लिए कहीं हाथ गाड़ी तो कहीं साइकिल रिक्शा उपलब्ध हो ही जाता था। कहीं उतार तो कहीं चढ़ाव, आखिर सांस तो फूलती ही होगी रिक्शे वाले की। फिल्म सुबह का तारा में तो भाभी तांगे से आती है, और बीच में तांगे का पहिया भी टूट जाता है।।
महमूद की ही एक और फिल्म कुंवारा बाप (१९७४) में एक और गीत है ;
मैं हूं घोड़ा, ये है गाड़ी
मेरी रिक्शा सबसे निराली।
न गोरी है, न ये काली
घर तक पहुंचा देने वाली।।
तब गीत के ही अनुसार सन् १९७४ में एक रुपया भाड़ा यानी किराया था। रिक्शे और तांगे का यह सफर समय के साथ साथ चलते चलते पहले ऑटो रिक्शा तक आया। तीन पहिए का पहले पेट्रोल से और अब सीएनजी से चलने वाला ऑटो रिक्शा आज भी मुसाफिर और राहगीर, जिनमें वृद्ध पुरुष, स्त्री बच्चे सभी शामिल हैं, का रोजाना का साथी है।
महंगा पेट्रोल कहें, अथवा प्रदूषण की मार, बदलते समय के साथ आम आदमी भी आखिर रिक्शे से ई -रिक्शे तक पहुंच ही गया। एक एक सवारी के लिए गाड़ी रोकना, आवाज लगाना, फिर चाहे वह ई – रिक्शा ही क्यों न हो। आज शैलेंद्र और मजरूह हमारे बीच सवाल करने को मौजूद नहीं हैं, लेकिन अगर होते, तो क्या उनको अपने सवालों का जवाब मिल जाता।।
हमने तो आजकल सवाल करना ही बंद कर दिया है। किसी के लिए जिंदगी अगर आज मेला है तो किसी के लिए उत्सव। ऐसे में भूख, रोटी और रोजगार जैसे प्रश्न करना औचित्यहीन और असंगत है। क्यों न ई -रिक्शे के इस युग में, कभी मुंबई की सड़कों पर, पेट्रोल से चलने वाली एक टैक्सी का सफर किया जाए, जिसका नाम लैला है। रफी साहब का बड़ा प्यारा सा, फिल्म साधु और शैतान का, कम सुना हुआ गीत है ;
कभी आगे, कभी पीछे
कभी ऊपर, कभी नीचे
कभी दाएं मुड़ जाए
कभी बाएं मुड़ जाए।
जाने कहां कहां
मुझे ले के चली
मेरी लैला, मेरी लैला।।
आज अगर महमूद होते, तो शायद वे भी यही कहते ;
मैं ई -रिक्शा वाला
मैं ई – रिक्शा वाला ..
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