श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिटी रिपोर्टर।)

?अभी अभी # 285 ⇒ सिटी रिपोर्टर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह आंखों देखी और कानों सुनी को ही सच मानता है। आज यह कितना सच है, यह हम नहीं जानते, लेकिन हम तब की बात कर रहे हैं, जब लोग अपने आसपास के हालचाल और खबरों के लिए या तो रेडियो पर समाचार सुनते थे, अथवा रोजाना अखबार का सहारा लेते थे। जब आकाशवाणी पर भी भरोसा नहीं होता था, तो बीबीसी सुनते थे। अच्छे फिल्मी संगीत के श्रोता विविध भारती छोड़, रेडियो सीलोन की ओर रुख करते थे। पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना।

देश विदेश की खबरें तो अखबारों को न्यूज एजेंसियों के जरिये मिल जाती थी, लेकिन शहर की खबरों के लिए वे नगर संवाददाता अथवा नगर प्रतिनिधि नियुक्त करते थे। बोलचाल की भाषा में तब उन्हें सिटी रिपोर्टर कहा जाता था। हर अखबार का एक प्रेस फोटोग्राफर भी होता था।।

तब सब कुछ इतना ग्लोबल और डिजिटल नहीं था जितना आज है। आज तो जिसके हाथ में कैमरे वाला मोबाइल है, वही फोटो खींच खींचकर, वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल रहा है। जो खबरों और घटनाओं का सस्पेंस और इंतजार कभी रहता था, अब वह सब कुछ खत्म सा हो गया है।

सोचिए, शहर की अथवा प्रदेश की किसी घटना के लिए सुबह तक का इंतजार, और जब तक कोई खबर अखबार में छप नहीं जाती, अथवा रेडियो पर प्रसारित नहीं हो जाती, तब तक उसकी सत्यता पर भरोसा नहीं होता था। सत्य अगर सुंदर होता है, तो कभी कभी सच कड़वा भी होता है। अखबार तब सच का आइना होता था, और पत्रकारिता धर्म।।

तब इस शहर में कितने अखबार थे। ले देकर दैनिक इंदौर समाचार, नव भारत, पुराना जागरण और नईदुनिया। बहुत बाद में अग्नि बाण टाइप दो तीन अखबार शाम को भी छपने लगे। गर्मागर्म खबरों के शौकीन चाय के ठेलों पर, पान की दुकान और केश कर्तनालय पर बेसब्री से उनका इंतजार करते पाए जाते थे।

अखबारों के शौकीन तो आज भी बहुत हैं। कहीं कहीं तो चाय और अखबार के बाद ही नित्य कर्म का नंबर आता था। सबसे पहले घर में अखबार पिताजी के हाथ में जाता था, बाद में वह पन्नों में बंट जाता था। कोई एक पन्ना लेकर चाय पी रहा है तो दूसरा उसे पढ़ते पढ़ते दातून कर रहा है। पहले हमारे घर नव भारत आता था लेकिन कालांतर में नई दुनिया ने अंगद के पांव की तरह आसन जमा लिया।।

तब नई दुनिया की पहचान राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते और लाभचंद छजलानी से होती थी। बाद में बारपुते जी का स्थान अभय छजलानी जी ने ले लिया।

नईदुनिया तब सिटी रिपोर्टर श्री गोपीकृष्ण गुप्ता थे। नगर का कोई भी थाना हो, कोई भी सरकारी विभाग हो, स्कूल हो, कॉलेज हो, अथवा विश्व विद्यालय, सब जगह आपको गुप्ता जी मौजूद मिलेंगे। किंग मेकर नई दुनिया यूं ही नहीं बना।

एक टीम थी नई दुनिया की, जिसमें प्रेस फोटोग्राफर शरद पंडित भी शामिल थे।

गोपीकृष्ण गुप्ता का स्थान बाद में श्री रामचंद्र नीमा, मामा जी ने ले लिया। सहज, सरल, सौम्य, मिलनसार व्यक्तित्व। एक और नईदुनिया से जुड़े पत्रकार थे श्री जवाहरलाल राठौड़, मध्यप्रदेश की रोडवेज बसों पर उनके धारावाहिक लेख “लाल डब्बों का सफर” ने पूरी कांग्रेस सरकार को हिलाकर रख दिया था।

नर्मदा आंदोलन भी अभ्यास मंडल और नईदुनिया का मिला जुला प्रयास ही तो था।।

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में नईदुनिया गुरुकुल से कोई चेला गुड़ बनकर नहीं निकला, सब शक्कर ही बन गए। रमेश बख्शी, प्रभाष जोशी जैसे कई वरिष्ठ पत्रकार कभी एक समय नईदुनिया से जुड़े हुए थे। हिंदी को समृद्ध बनाने और हिंदी पत्रकारिता को बुलंदियों तक पहुंचाने में नईदुनिया के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

कहीं पीत पत्रकारिता तो कहीं निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के दौर से निकलकर आज पत्रकारिता जिस मोड़ पर खड़ी है, उसके आगे कई चुनौतियां हैं। आपातकाल में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के विरोध स्वरूप संपादकीय खाली छोड़ना केवल राजेंद्र माथुर जैसा निडर और समर्पित संपादक ही कर सकता था। खतरों से खेलने वाले सिटी रिपोर्टर और पत्रकार शायद आज भी कहीं मौजूद अवश्य होंगे। बस नजर नहीं आ रहे।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments