श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झूठा सच…“।)
अभी अभी # 304 ⇒ झूठा सच… श्री प्रदीप शर्मा
सदा सच बोलो ! इससे बड़ा झूठ शायद ही कोई हो। कहते हैं, सत्य में धर्म प्रतिष्ठित होता है। जब किसी से आपका सच हजम नहीं होता तो वह आपको सत्यवादी हरिश्चंद्र की उपाधि से विभूषित कर देता है। दूसरे सत्यवादी माने जाते हैं, धर्मराज युधिष्ठिर, नरो वा कुंजरो वा वाले। हरिश्चंद्र सत्यवादी तो थे, लेकिन प्रैक्टिकल नहीं थे। धर्म की रक्षा के लिए बोला झूठ, झूठ नहीं होता इसलिए धर्मराज का झूठ, झूठ झूठ होते हुए भी सच के करीब ही माना गया और पांच पांडवों में से केवल वे ही स्वर्ग के अधिकारी माने गए।
क्या स्वर्ग का सच और झूठ से कोई संबंध है। क्या देवताओं का छल कपट भी सच की श्रेणी में ही आता है। हमने तो सदा धर्म की ही विजय होते देखी है, कहते रहिए आप सत्यमेव जयते।।
लोग भी अजीब हैं, सच की पहचान चखकर करते हैं। शायद ठीक वैसे ही, जैसे हम किसी को मजा चखाते हैं। किसी ने चखा और कड़वा कह दिया। कड़वा तो करेला भी होता है और नीम भी, लेकिन दोनों लाभप्रद हैं। सच को अगर करेले की तरह पकाया जाए तो शायद वह इतना कड़वा नहीं, स्वादिष्ट ही लगे। कड़वी नीम ही क्यों, मीठी नीम भी तो खाई जा सकती है। सच बोलने के लिए कड़वा बोलना जरूरी नहीं।
मुझे तो असली नकली घी की ही पहचान नहीं। जिस तरह केवल सूंघकर अथवा चखकर असली नकली की पहचान नहीं की जा सकती, सच और झूठ में भेद करना भी आजकल इतना आसान नहीं।।
बाजार में तो सच और झूठ दोनों एक भाव ही बिकते हैं। हमने देख ली ISI मार्क गारंटी और आंख मूंदकर वस्तु खरीद ली। गारंटी तो आजकल नोटों पर आरबीआई के गवर्नर की भी किसी काम की नहीं। नोटबंदी ने तो यह भी स्पष्ट कर दिया कि केवल मोदी की गारंटी ही काम आती है, किसी गवर्नर की नहीं।
राजनीति तो खैर साम दाम दण्ड और भेद का मामला है, उसे कभी सच झूठ की तराजू में तौला नहीं जा सकता। आज जिस तरह सभी सिंह एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं, उसी तरह आपातकाल के बाद सभी सिंह जनता पार्टी की ओर लपक रहे थे। बाबूजी यानी जगजीवन राम ने जब कांग्रेस छोड़ी तो लोगों ने उनकी निष्ठा पर सवाल किया। जिसके जवाब में बाबू जी ने बहुत सुंदर जवाब दिया। हम राजनीतिज्ञ हैं, कोई संत नहीं। और आज देखिए सत्य और धर्म का कमाल। सभी संत राजनीतिज्ञ बने बैठे हैं।।
यानी आज झूठ सच के आगे नतमस्तक है क्योंकि झूठ भी गारंटी के साथ बोला जा रहा है। हम सत्य की विजय होते देख रहे हैं, झूठ भी दल बदल रहा है, सच के चरणों में शरणागत हो रहा है। बस लिबास ही तो बदलना है, एक मोहर ही तो लगनी है ISI मार्क की।
अगर आप सच और झूठ में अधिक उलझना चाहते हैं तो “सत्य तथ्य या वास्तविकता से सहमत होने की स्थिति है, जबकि झूठ धोखा देने के इरादे से किया गया झूठा बयान है। हालाँकि, “तथ्य” या “वास्तविकता” का गठन करने वाली अवधारणा किसी के दृष्टिकोण के आधार पर भिन्न हो सकती है, और झूठ बोलने की नैतिकता उस संदर्भ पर निर्भर हो सकती है जिसमें यह घटित होता है।। “
संदर्भ : झूठा सच, यशपाल
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