श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झोली भर दे।)

?अभी अभी # 316 ⇒ झोली भर दे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप जब बाजार सौदा खरीदने जाते हैं, तो झोला लेकर जाते हैं, कीमत चुकाते हैं, झोला भरकर घर ले आते हैं, लेकिन जब मंदिर में ईश्वर से कुछ मांगने जाते हैं, तो अपनी श्रद्धानुसार पत्रं पुष्पम् समर्पित कर झोली फैला देते हैं। ईश्वर आपकी मुराद पूरी कर देता है, आपकी झोली भर देता है। कहा जाता है, आप उसके दर पर भले ही खाली हाथ जाओ, वह आपको कभी खाली हाथ वापस नहीं भेजता, आपकी झोली भरकर ही भेजता है।

यह पूरी तरह आस्था का मामला है। हर सवाली वहां भिखारी बनकर ही जाता है। दुनिया के सभी ताज, टोपी और पगड़ी वाले को हमने उसके आगे झुकते देखा है, और जो नहीं झुका, उसे बिगड़ते, बर्बाद होते भी देखा है। सीना छप्पन का हो, अथवा ताज हीरों का, उसकी चौखट पर कोई सर रगड़ता है तो कोई नाक।

उसकी किरपा हो तो मालामाल और उसका कोप हो तो सब ख़ाक।।

आखिर क्या होती है यह झोली और इसे कैसे फैलाया जाता है। मैं जब अपनी मां के साथ मंदिर जाया करता था, तो मां कुछ देर के लिए भगवान के सामने आंख बंद कर, अपना आंचल फैला देती थी। मैं घर आते वक्त पूछता था, मां आपने भगवान से क्या मांगा ? मां ने कभी जवाब नहीं दिया, लेकिन मुझे आज महसूस होता है, जिस मां के आंचल में मुझे जिंदगी की सारी खुशियां मिली हैं, मां ने झोली फैलाकर मेरे लिए वो खुशियां ही मांगी होंगी, क्योंकि मां ने अपने लिए भगवान से कभी कुछ नहीं मांगा।

किसी मां के पास साड़ी है तो किसी बहन के पास दुपट्टा। वह उसे जब ईश्वर के सामने फैलाती है, तो वह झोली बन जाती है। इधर झोली फैलाई, उधर मुराद पूरी हुई। मैं जब भी मंदिर गया हूं तो यंत्रवत् मेरी आंखें बंद हो जाती हैं और हाथ भी जुड़ जाते हैं लेकिन मेरे पास फैलाने के लिए कोई झोली नहीं होती। आंख खोलता हूं, पंडित जी प्रसाद देते हैं, मैं उसे श्रद्धा से ग्रहण कर, रूमाल फैलाकर उसमें बांध लेता हूं। मेरे लिए वही मेरी झोली है। भगवान का वह प्रसाद ही उनकी मुझ पर कृपा है। मुकेश का यह एक गीत गुनगुनाता मैं उसके दर से खुशी खुशी घर आ जाता हूं ;

बहुत दिया देने वाले ने तुझको।

आंचल ही न समाये तो क्या कीजे।।

झोली से बचपन याद आ गया। गांव में सहपाठियों के साथ खेलना, खेत में, अमराई में घुस जाना। पत्थर फेंककर अमियां तोड़ना, कमीज की नन्हीं सी जेब, छोटे छोटे हाथ। मजबूरन कमीज को ही झोली बनाते और जितनी कच्ची कच्ची केरियां झोली में समातीं, लेकर भाग खड़े होते।

इच्छाएं बढ़ती गईं, झोली बड़ी होती चली गई। झोली नहीं, चार्टर ऑफ डिमांड्स हो गई। देने वाले का क्या है, वह तो जिसे देना होता है, छप्पर फाड़कर भी दे ही देता है।

कभी दूसरे के लिए भी झोली फैलाकर देखें, कितना सुख मिलता है। वैसे इस सनातन प्रार्थना में झोली फैलाकर यही सब तो मांगा गया है उस सर्व शक्तिमान से ;

सर्वे भवन्तु सुखिनः

सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments