श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बेसिरपैर की बात…“।)
अभी अभी # 320 ⇒ बेसिरपैर की बात… श्री प्रदीप शर्मा
हास्य में गंभीर नहीं हुआ जाता। कोई भी बात ना तो सिर से शुरू होती है, और ना ही पैर से। उसे मुंह से ही शुरू होना होता है। बात वही समझ में आती है, जो सिर के ऊपर से ना निकल जाए, और आसानी से हजम भी हो जाए। कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो हम ना तो समझ सकते हैं और ना ही समझा सकते हैं।
बात पुरुष और स्त्री अस्मिता की हो रही है। आप अस्मिता को पहचान, गौरव अथवा वजूद भी कह सकते हैं। आसान शब्दों में आप इसे प्रकृति और पुरुष भी कह सकते हैं। मेरी अपनी पहचान एक पुरुष के रूप में स्थापित हो चुकी है, वही मेरी अस्मिता है, उपाधि है। अब मैं सहज रूप में लिखूंगा, पढ़ूंगा, सोचूंगा।
मैं सपने में भी कुछ सोच नहीं सकती, देख नहीं सकती, सुन नहीं सकती। इतना ही नहीं, वर्जना ना होते हुए भी मैं सामान्य परिस्थिति में साड़ी नहीं पहन सकता, चूड़ी नहीं पहन सकता।।
यही बात सामान्य रूप से एक स्त्री पर भी लागू होती है। बचपन की बात कुछ और है। भाई बहन के बीच, देखा देखी में कुछ छोटी छोटी बालिकाएं कह सकती हैं, मैं भी खाऊंगा, हम भी जाऊंगा, लेकिन परिवेश और परिस्थिति के साथ उसका परिधान और रहन सहन एक स्त्री के रूप में ही विकसित और मान्य होता है।
अभिनय और अभिनेताओं की बात अलग है। अभिनय और नृत्य एक ऐसी विधा है, जहां कला अस्मिता पर भारी है। नृत्य सम्राट गोपीकृष्ण तो गोपी भी थे और कृष्ण भी।।
शिव का एक अर्धनारीश्वर स्वरूप भी है। यानी अगर भेद बुद्धि को ताक में रख दिया जाए, तो स्त्री पुरुष का भेद भी सांसारिक ही है। यह सृष्टि चलती रहे, बस उसी व्यवस्था का एक अंग है, यह स्त्री पुरुष भेद।
राधा और कृष्ण में तो यह भेद भी समाप्त होता नजर आता है। कृष्ण को पाना है तो राधा की आराधना करो। राधा बिना कृष्ण अधूरे हैं, पार्वती बिन शिव और सिया बिन पुरुषोत्तम राम। धर्मपत्नी को वैसे भी अर्धांगिनी अर्थात् अंग्रेजी में better half माना गया है। पति परमेश्वर को मिर्ची लगे तो लगे।।
एक मीरा लल्लेश्वरी कश्मीर में भी हुई है। आध्यात्मिक ऊंचाइयों पर पहुंच जाने के पश्चात स्त्री पुरुष का भेद वैसे भी मिट जाता है। रस और रंग जहां हो वहां ही रास होता है, और जहां रास होता है, फिर वहां स्त्री पुरुष का भेद भी समाप्त हो जाता है।
उधर आत्मा का परमात्मा से मिलन और इधर शोला और शबनम ;
तू तू ना रहे, मैं ना रहूं
इक दूजे में खो जाएं ..
अपनी विसंगतियों, असमानताओं और भेद बुद्धि का त्याग ही जीवन में वास्तविक प्रेम और रस की निष्पत्ति कर सकता है। किसी का होना ही होली है। अस्मिता, उपाधि, अहंकार का दहन ही तो होलिका दहन है। उसके बिना भी क्या कभी कृष्ण की बांसुरी बजी है, राधा नाची है। असली रंग तो तब ही बरसेगा।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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