श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम।)

?अभी अभी # 323 ⇒ हंसने का मौसम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह प्यार का मौसम होता है, उसी तरह हंसने का मौसम भी होता है। होली के मौसम को आप हंसी खुशी का मौसम कह सकते हैं, क्योंकि प्यार का सप्ताह, यानी वैलेंटाइन्स वीक तो, कब का गुजर चुका होता है। होली पर जो पानी बचाने की बात करते हैं, और दिन भर एसी में पड़े रहते हैं, वे परोक्ष रूप से हंसी खुशी और मस्ती घटाने की ही बात करते हैं।

हंसना सबकी फितरत में नहीं। जिन्हें कब्ज़ होती है, वे खुलकर हंस भी नहीं सकते। हंसने से भूख भी बढ़ती है, और पाचन शक्ति भी। चिकित्सा विज्ञान ने अनिद्रा का निदान तो नींद की गोलियों में तलाश लिया लेकिन अवसाद का उनके पास कोई इलाज नहीं। घुट घुटकर, घूंट घूंट पीना और यह गीत गुनगुनाना ;

हंसने की चाह ने

इतना मुझे रुलाया है।

कोई हमदर्द नहीं,

दर्द मेरा साया है।।

होली का मतलब है, ठंड गई, गर्मी आई। होली का एक मतलब और है, ठंडाई। ठंडाई पीसी जाती है, मिक्सर में नहीं, सिल बट्टे पर, और वह भी उकड़ू बैठकर। पिस्ता, बादाम, केसर, खसखस, इलायची, काली मिर्च, और मगज के बीजों को पीसकर जब दूध और शकर में मिलाया जाता है, तब जाकर बनती है ठंडाई। अगर ठंडाई पीसी जाती है, तो विजया घोटी जाती है। आयुर्वेदिक औषधि भांग को ही विजया कहते हैं। असली विजयादशमी तो कायदे से होली ही है।

भांग को शिव जी की बूटी भी कहा जाता है। ठंडाई और भांग के गुणगान का हंसने और खुलकर हंसने से बहुत गहरा संबंध है। विजया पाचक तो है ही, इससे खुलकर दस्त भले ही ना लगें, लेकिन हंसी ऐसी खुलती है कि बंद होने का नाम ही नहीं लेती।।

जो लोग बिना बात के भी हंस लेते हैं, इसमें उनकी अपनी कोई विशेषता नहीं, यह विजया का ही प्रभाव होता है। आश्चर्य होता है उन लोगों पर, जो हंसने के लिए लाफ्टर क्लब जॉइन करते हैं। अधिक व्यंग्य कसने वाले और कसैला व्यंग्य लिखने वाले न जाने क्यों हास्य रस से परहेज़ करते नजर आते हैं। इन्हें तो हंसने वालों पर भी हंसी नहीं, रोना आता है।

भांग यानी विजया आपको बिना बात के हंसने की गारंटी देती है। वैसे आज के राजनीतिक परिदृश्य में, जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हो, तब हंसने के लिए, अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। रमजान की अजान की तरह और विष्णु सहस्त्रनाम की तरह जब आकाशवाणी की तरह पूरी कायनात में एक ही आवाज गूंजती है, तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें गारंटी दूंगा, तो नर तो क्या, किसी खर को भी बरबस हंसी छूट जाती होगी।।

लोग पहले होली के इस मौसम में बुरा नहीं मानते थे, लेकिन अब मौसम न तो प्यार का है और न ही हंसने का। इंसान की नफरत और बदले की आग ने, मौसम को भी बेईमान कर दिया है।

प्रेम और हंसी खुशी बाज़ार से खरीदी नहीं जाती। रोते हुए बच्चे को हंसाने का फार्मूला बहुत पुराना हो गया। हंसी खुशी और मस्ती की पाठशाला का पहला पाठ खुद पर ही हंसना है, दूसरों पर हंसना नहीं, उन्हें भी हंसाना है।

नफरत के बीज की जगह अगर जरूरत पड़े तो प्रेम और हंसी खुशी का, विजया का पौधा लगाएं।

मित्रता हो अथवा दोस्ती हो, पहले घुटती है, और उसके बाद ही छनती है। मौका और दस्तूर बस हंसने और मस्ती छानने का है। अगर आप हंसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना और ठहाके लगाना भूल गए हैं, तो शिवजी की बूटी की शरण में आएं। आप नॉन स्टॉप हंसते रहेंगे, यह विजया की गारंटी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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