श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हाॅं मैंने भी प्यार किया…“।)
अभी अभी # 324 ⇒ हाॅं मैंने भी प्यार किया… श्री प्रदीप शर्मा
प्यार की कोई उम्र नहीं होती। वैसे यह मेरा पहला प्यार तो नहीं है, लेकिन शायद प्यार का अहसास मुझे पहली बार हुआ है। प्यार एकांगी भी हो सकता है और दो तरफा भी। साधारण प्यार तो रिश्तों में भी होता है और यार दोस्तों में भी। अक्सर विज्ञापनों में इस तरह के प्यार को भुनाया भी जाता है। यथा;
जो अपनी बीवी से करे प्यार ;
वो प्रेस्टीज से कैसे करे इंकार, अथवा
पापा पापा आए, हमारे लिए क्या लाए।
मुन्नी के लिए फ्रॉक और तुम्हारे लिए डोरा बनियान।
वैसे उम्र के साथ रिश्ते भी बूढ़े हो जाते हैं और प्यार भी। भला इस उम्र में कौन प्यार का इजहार करता है। अब तो बस प्रभु से प्रेम करने के दिन आ गए हैं हमारे। जिनका पूजा पाठ में मन नहीं लगता, वे पशु पक्षियों और बच्चों से प्रेम करने लगते हैं। प्रकृति प्रेमी और संगीत प्रेमियों की भी अपनी एक अलग ही दुनिया होती है।।
एक होता है साधारण प्रेम और एक होता है दिव्य प्रेम, जिसके लिए सांसारिक चक्षु किसी काम के नहीं होते, वहां प्रज्ञाचक्षु सूरदास जैसी दिव्य दृष्टि होती है जो कृष्ण की बाल लीलाओं का रसपान भी करती है और गुणगान भी। एक नन्हें से बच्चे की बाल लीलाओं में भी वही दिव्यता और आकर्षण होता है, जो ठुमक चलत रामचंद्र और यशोदा के बालकृष्ण में होता है।
एक समय था, जब हर आंगन में बच्चों की किलकारियां गूंजा करती थी। घर आंगन और बालोद्यान का स्थान अब झूलाघर और प्ले स्कूल ने ले लिया। माता पिता दफ्तर में और बच्चा नर्सरी और प्ले स्कूल में। एक नवजात शिशु 24 घंटे की देखरेख मांगता है। पालने से घुटने चलने तक का सफ़र इतना आसान भी नहीं होता।।
मेरे पास घर तो है, लेकिन आंगन नहीं। पड़ोस की एक वर्ष की बच्ची का कब मेरे घर में प्रवेश हुआ और कब वह मेरे मन में घर कर गई, कुछ याद नहीं। हमारी आंखें पहली बार कब मिली यह तो पता नहीं, लेकिन उनसे मिली नजर तो मेरे होश उड़ गए।
सिया राम मय सब जग जानी। संयोग से उस बच्ची का नाम भी सिया ही है। सिया सिया पुकारते ही वह मेरी ओर गर्दन मोड़ लेती है और उसकी मधुर चितवन से मैं निहाल हो जाता हूं। हम भले ही बच्चों की ओर आसक्त अथवा आकर्षित हों, उनके लिए यह एक सहज बाल लीला ही होती है। बस उन्हें पूरी छूट दीजिए और उनकी लीलाओं का रसास्वादन कीजिए।।
काग के भाग तो पढ़ा था, लेकिन जब सिया मेरे हाथ से, चाव से मीठा खाती है और प्यास लगने पर मममम यानी पानी मांगती है, तो मैं अपने ही भाग्य पर
इतराने लगता हूं। घुटनों के बल चलकर जब वह मेरे घर की वस्तुओं को अस्त व्यस्त और तहस नहस करती है, तो मेरे लिए वह जश्न का माहौल होता है। एक बच्चे की निगाह समग्र होती है। उसका बस चले तो वह अपनी दृष्टि से ही पूरा ब्रह्मांड नाप ले। आखिर वह सिया है कोई साधारण बालिका नहीं।
रोजाना मुझे सिया का इंतजार रहता है। वह आती है, अपनी नजरों से मुझे घायल कर जाती है, दिव्य और अलौकिक प्रेम का आनंद मुझे घर बैठे ही नसीब हो जाता है। आधे घंटे अथवा अधिक से अधिक एक घंटे में वह अपनी लीला समेट लेती है, और मुझे अलविदा, टाटा, बाय बाय कर देती है। जब सिया मन बसिया है तो मुझे कैसी शर्म, कैसी लाज ! हां, मैंने भी प्यार किया, प्यार से कब इंकार किया।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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