श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंधा और रेवड़ी…“।)
अभी अभी # 325 ⇒ अंधा और रेवड़ी… श्री प्रदीप शर्मा
रेवड़ी भी मेरी नजरों में एक तरह का प्रसाद ही है। वैसे भी प्रसाद का मतलब मीठा ही होता है। प्रसाद में हमने चने चिरौंजी और पंजेरी ही अधिक खाए हैं। मंदिरों में आरती के बाद प्रसाद का प्रावधान होता है। पहले भगवान को भोग लगता है और फिर वही प्रसाद के रूप में वितरित होता है। कभी कभी प्रसाद में मिठाई और फल भी खाने को मिल जाते थे। कभी ककड़ी और केले के कुछ टुकड़े तो कभी पूरा लड्डू। जैसा चढ़ावा, वैसा प्रसाद।
प्रसाद आम श्रद्धालु तो श्रद्धा से ग्रहण करते हैं, लेकिन बच्चों को प्रसाद के प्रति विशेष रुचि और उत्साह होता है। अपनी नन्हीं नन्हीं हथेली को कोसते हुए वे प्रसाद के लिए हाथ आगे बढ़ाते हैं, काश हमारा हथेली भी बड़ी होती तो हमें भी ज्यादा प्रसाद मिलता। एक बार प्रसाद में लाइन में लगकर प्रसाद ग्रहण किया, बाहर आए, जल्दी से खत्म किया, हाथ कमीज से पोंछा और पुनः प्रसाद की कतार में। प्रसाद से बच्चों का कभी मन नहीं भरता।।
प्रसाद बांटना भी एक कला है। जितना भी प्रसाद है, वह सभी श्रद्धालुओं को समान रूप से मिल जाए, कहीं कोई रह नहीं जाए। अगर प्रसाद मात्रा में ज्यादा है तो उदारता से दिया जाए और कम होने की स्थिति में हाथ रोककर।
रेवड़ी को आप मिठाई का जेबी संस्करण भी कह सकते हैं। लड्डू से भले ही यह उन्नीस हो, लेकिन फिर भी चिरौंजी पर यह भारी पड़ती है। जिस तरह हमारा बनारस का छोरा अमिताभ, दीपावली के त्यौहार पर, कैडबरीज का प्रचार करता हुआ कहता है, कुछ मीठा हो जाए, उस कैडबरी से हमारी देसी रेवड़ी क्या बुरी है।।
अंधे के हाथ अगर बटेर लग जाए तो भी ठीक, लेकिन किसी अंधे से रेवड़ी बंटवाने का औचित्य हमें समझ में नहीं आया। अगर वह वाकई में अंधा है तो अपने पराये का भेद कैसे कर सकेगा। वैसे भी रेवड़ी गिनकर नहीं दी जाती। ना तो वह मुट्ठी भर दी जाती है और न ही लड्डू की तरह कभी पूरी तो कभी तोड़कर। बेचारे अंधे का क्या है, आप जितनी बार हाथ फैलाओगे, वह देता रहेगा।
इस तरह तो रेवड़ियां सबको बंटने से रही। जिसको नहीं मिली, वही कहता फिरेगा, अंधा बांटे रेवड़ी, अपने अपनों को दे।
रेवड़ी बांटने और लेने वाले के बीच जरूर कुछ ना कुछ तो संबंध तो होगा ही। राजनीति में आंख मूंदकर रेवड़ियां नहीं बांटी जाती। जिनसे उनका इलेक्टोरल बॉन्ड होता है, वहीं रेवड़ियां बांटी जाती है। यह एक ऐसा चुनावी समझौता है जो हुंडी की तरह गारंटी के साथ किया जाता है। आपको रेवड़ियां अगले पांच साल तक इसी प्रकार मिलती रहेंगी। जब बेचारी जनता की ही आंखों पर पट्टी पड़ी हो, आचार संहिता भी क्या करे। रेवड़ियां तो बटेंगी ही, और वह भी खुले आम।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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