श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बिना शीर्षक।)

?अभी अभी # 326 ⇒ बिना शीर्षक? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या कोई रचना बिना शीर्षक भी हो सकती है। जहां केवल विचार व्यक्त होते हैं, वह अभिव्यक्ति कहलाती है। अक्सर लेखक पहले विषय वस्तु का चुनाव करता है। जैसे जैसे विषय का विस्तार होता चला जाता है, शीर्षक अपने आप सूझने लगता है। शीर्षक को आप रचना की माथेरी बिंदु भी कह सकते हैं।

जिस तरह बच्चे की पहचान उसके नाम से होती है, कोई रचना अपने शीर्षक से ही पहचान बनाती है। बच्चे के साथ उसके पिता का नाम उसे समाज में मान्यता देता है। एक रचना की पहचान भी कहां लेखक के बिना संभव है। पाठक पहले शीर्षक देखता है, फिर उसका ध्यान लेखक पर जाता है।।

शीर्षक की तरह ही अगर रचना के साथ उसके लेखक का नाम नहीं हो, तब भी बात जमती नहीं। शीर्षक और लेखक के नाम के बिना हर रचना अधूरी है। बिना शीर्षक की रचना को पढ़कर उसका शीर्षक तो एक बार फिर भी दिया जा सकता है लेकिन अगर रचना के साथ लेखक का नाम नहीं दिया गया हो, तो रचना किसकी है, यह पता लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता है।

एक कुशल संपादक रचना की श्रेष्ठता को वरीयता देता है लेखक को नहीं। स्थापित लेखक तो जो लिखता है, छप जाता है। कितना अच्छा हो, रचना के चयन के वक्त, लेखक का नाम गुप्त रखा जाए। वैसे एक प्रयोग यह भी किया जा सकता है, रचना के साथ लेखक का नाम ही प्रकाशित नहीं किया जाए। पाठक की भी तो जिज्ञासा जागे, किस लेखक की है यह उत्कृष्ट रचना ?

विश्व का श्रेष्ठ साहित्य उस कृति के शीर्षक और लेखक पर ही टिका है। मैला आंचल से रेणु और गोदान से प्रेमचन्द याद आ जाते हैं। आवारा मसीहा से पाठकों को रूबरू विष्णु प्रभाकर ने करवाया। कौन भूल सकता है मन्नू भण्डारी और उनकी कृति महाभोज और आपका बंटी को।

वे ही रचनाएं अमर होती हैं, जिनका नाम होता है। नामी लेखक अपनी रचनाओं के ऋणी होते हैं, क्योंकि उनकी रचनाओं ने ही उन्हें भी अमर बना दिया है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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