श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जितने दूर, उतने पास…“।)
अभी अभी # 362 ⇒ जितने दूर, उतने पास… श्री प्रदीप शर्मा
जीवन में दूरियां भी हैं, और नजदीकियां भी, जो जितना पास है, उसकी कद्र नहीं, जो दूर है उसे पाए बिना सब्र नहीं। आधी छोड़ पूरी को पाना, क्या एक बच्चे द्वारा दोनों हाथों में लड्डू का थाल समेट लेने जैसा अनथक प्रयास नहीं। बच्चा तो अबोध, नासमझ है, लेकिन साधारण मनुष्य भी कहां, जो पास उपलब्ध है, करीब है, उससे संतुष्ट है।
पास और करीबी का अहसास किसे नहीं होता। एक मां तक अपने नवजात शिशु को एक पल के लिए भी अपनी आंखों से दूर नहीं जाने देती। क्या कलेजे के टुकड़े से अधिक करीबी कोई रिश्ता आपने देखा है। ।
लेकिन जब जो पास है, वह पर्याप्त प्रतीत नहीं होता, तब निगाहें दूर तक कुछ खोजा करती हैं। केवल वस्तुओं तक ही यह सीमित हो ऐसा जरूरी नहीं, जब पास के रिश्तों में खटास का अनुभव होने लगे, स्वार्थ, मतलब और खुदगर्जी अपने पांव पसारने लगे, तब रिश्तों में दूरियां पनपनी शुरू हो जाती हैं। अपने कब पराये हो जाते हैं, कुछ पता ही नहीं चलता।
जहां प्रेम की गांठ मजबूत होती है, हमेशा करीबी का अहसास बना रहता है। दूरी और नजदीकी यहां कोई मायने नहीं रखती। एक बंधन ऐसा भी होता है, जब कोई दूर का अनजान मुसाफिर अचानक हमारे जीवन में आता है, और हमारा जीवन साथी बन जाता है ;
कभी रात दिन हम दूर थे
दिन रात का अब साथ है।
वो भी इत्तिफाक की बात थी
ये भी इत्तिफाक की बात है। ।
बस फिर तो, “जनम जनम का साथ है, निभाने को, सौ सौ बार मैने जनम लिए” यानी जितने दूर उतने पास अनंत काल तक। ।
क्या दूर और क्या प्यास, क्या धरती और आकाश, सबको प्यार की प्यास। यह प्यास अगर पास नहीं बुझती तो एक प्यासा मृगतृष्णा की तरह भटकता ही रहता है, बस्ती बस्ती परबत परबत। जहां दो बूंद पानी मिला, बस वहीं विश्राम।
हमारी प्यास जन्मों की है, यह इतनी आसानी से तृप्त नहीं हो सकती। हम दूर के रिश्तों में, यारों में, दोस्तों में कुछ ऐसा तलाश करते हैं, जो हमें और करीब, और पास लाए, जहां रिश्ते दिलों के हों, आत्मीय हों, जिससे चित्त शुद्ध हो, मन शांत हो। यह तलाश कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती, क्योंकि हम जिसे दूर दूर तक तलाश रहे हैं, वह तो कहीं नजर ही नहीं आ रहा। थक हारकर व्यथित मन यही कह उठता है ;
ओ दूर के मुसाफिर
हमको भी साथ ले ले।
हम रह गए अकेले।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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