श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घूंट घूंट चिंतन…“।)
अभी अभी # 373 ⇒ घूंट घूंट चिंतन… श्री प्रदीप शर्मा
मन की कई अवस्थाएं होती हैं। एक शांत मन होता है, जिसमें विचारों की भीड़ जमा नहीं होती, वहीं दूसरी ओर एक उत्तेजित मन ऐसा भी होता है, जहां विचारों का जमघट लगा रहता है। कहीं लहर है, तो कहीं तूफान और कहीं प्रशांत महासागर।
उनके खयाल आए, तो आते चले गए। विचारों के सैलाब को थामने के लिए, कागज़ पर कलम चलाने के लिए मूड बनाया जाता है। खिड़की खोली जाती है, पंखा चलाया जाता है, मौसम के हिसाब से ठंडा गरम हुआ जाता है। सुबह सुबह तो चाय का प्याला कमाल कर जाता है, चुस्कियों के साथ चुटकियों में कलम सरपट दौड़ने लगती है।।
बच्चों का मन बड़ा चंचल होता है, खेलते वक्त उन्हें खाने पीने की कोई फिक्र नहीं होती। मां आवाज देती है, दूध पीकर खेलने जाओ। बच्चा, बचने का बहाना बनाता है, अभी गर्म है। मां उसकी चालाकी समझती है, तुरंत ठंडा कर देती है, फीका है, एक और बहाना। मां दूध में हॉर्लिक्स मिला देती है, चलो अब जल्दी गट गट पी जाओ, फिर चॉकलेट भी दूंगी। और बच्चा एक सांस में गट गट, पूरा ग्लास खाली कर देता है।
जो लोग स्वाद के शौकीन होते हैं, वे चाय हो अथवा दूध, आराम से घूंट घूंट पीते हैं। हमने वह जमाना भी देखा है जहां कॉफी हाउस में एक कप कॉफी और सिगरेट के सहारे लोग घंटों समय काटा करते थे। एक एक चाय का घूंट और हर फिक्र को धुएं में उड़ाने का अंदाज़। सार्वजनिक स्थानों पर आज भले ही धूम्रपान वर्जित हो गया हो, लेकिन आज भी केसर के दाने दाने में दम है। चोर, चोरी से जाए, हेराफेरी से ना जाए।।
जो शायर कम्युनिस्ट होते हैं, वे बदनाम होते हैं। खुले आम शराब पीते हैं, और कहते हैं ;
मैने पी शराब !
तुमने क्या पीया ?
आदमी का खून ….
पीने पिलाने की भी तहजीब होती है। शराब की चुस्कियां नहीं ली जाती, पेग पीये, पिलाये जाते हैं, कहीं घूंट घूंट, तो कहीं बच्चों की तरह गटागट। कहीं शराब गम गलत करती है, तो कहीं खुशी बढ़ाती है।
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा।
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।।
एक आम आदमी की जिंदगी भी क्या है। वहां रोज संघर्ष है, मान अपमान है, राग द्वेष है, महत्वाकांक्षा है, हार जीत है, पेशेवर ईर्ष्या (professional jealousy) है। आए दिन कभी उसे अपमान का घूंट पीना पड़ता है, तो कभी जहर का। कभी उसका खून जल रहा है, तो कभी वह बेबस, लाचार सिर्फ खून का घूंट पीकर ही रह जाता है।
घुट घुटकर जीने से तो अच्छा है, दो घूंट ही लगा लें। हम पीने पिलाने से इत्तेफाक नहीं रखते, क्योंकि यह आपका जाती मामला है। फिर भी हम किसी को खून का घूंट पीने से नहीं रोक सकते। ऐसी परिस्थितियों में मुकेश का यह गीत हमारा शॉक ऑब्जर्वर का काम करता है ;
जब ग़म ए इश्क़ सताता
है तो हँस लेता हूँ।
हादसा याद ये आता
है तो हँस लेता हूँ।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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