श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – ” थप्पड़…“।)
अभी अभी # 389 ⇒ थप्पड़ … श्री प्रदीप शर्मा
थप्पड़ तेरे कितने नाम, चांटा, तमाचा, रेपटा, झापड़ तमाम। अगर थप्पड़ का संधि विच्छेद किया जाए, तो जो थप से पड़े, वह थप्पड़। थप शब्द भी तबले की थाप का करीबी ही प्रतीत होता है, थाप में प्रहार भी है, और ध्वनि भी।
जिस तरह क्रिकेट, हॉकी और फुटबॉल जैसे खेल मैदान में खेले जाते हैं, थप्पड़ का दायरा सिर्फ गाल तक ही सीमित होता है। ईश्वर ने दो गोरे गोरे गाल शायद इसीलिए बनाए हैं, कि अगर आप अहिंसा के पुजारी हो, तो कोई अगर आपके एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो आप उसे दूसरा गाल भी पेश कर सकें।।
जो अहिंसा में विश्वास रखते हैं, वे भले ही किसी को थप्पड़ ना मारें, लेकिन थप्पड़ खाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। हमारा जन्म तो थप्पड़ खाने के लिए ही हुआ था। पैदा होते से ही अगर नहीं रोओ, तो कभी नर्स तो कभी दाई से थप्पड़ मानो हमारा पैदाइशी तोहफा था। बाद में तो थप्पड़ ही हमारा स्कूल का होमवर्क था, और थप्पड़ ही हमारी पढ़ाई का सबक।
हमने बचपन में जवाब देने पर भी थप्पड़ खाया है और चुप रहने पर भी। हमें याद नहीं, कभी पिताजी ने हमें प्यार से चपत मारी हो, ऐसा सन्नाकर चांटा मारते थे, कि पांचों उंगलियां गालों पर नजर आ जाती थी। लेकिन बाद में मां का प्यार दुलार थप्पड़ का सारा दर्द सोख लेता था, और वही पिताजी रात को हमारे लिए कुल्फी लेकर आते थे, और अपने हाथों से, प्यार से खिलाते थे। हमें तब कहां दबंग का यह डायलॉग याद था, पिताजी आपके थप्पड़ से नहीं, प्यार से डर लगता है।।
कुछ छड़ीमार गुरुजन शिष्यों में विद्या कूट कूटकर भरना चाहते थे। मुक्का, घूंसा, लप्पड़, और जब स्केल और पेंसिल से काम नहीं हो पाता था, तो इंसान से मुर्गा बनाकर भी देख लेते थे। बाद में थक हारकर यही उद्गार व्यक्त करते थे, इन गधों को इंसान नहीं बनाया जा सकता।
आज भले ही हमें थप्पड़ मारने वाला कोई ना हो, लेकिन पिताजी और गुरुजनों के थप्पड़ का सबक हमें आज तक याद है। काश, आज भी कोई हमारे कान उमेठे, थप्पड़ मारे।
जो लोग शाब्दिक हिंसा के पक्षधर होते हैं, वे केवल शब्दों के प्रहार से ही अपने प्रतिद्वंदी के मुंह पर ऐसा तमाचा जड़ते हैं, कि वह तिलमिला जाता है। स्मरण रहे, शब्द रूपी तमाचा, गाल पर नहीं, मुंह पर जड़ा जाता है।।
कूटनीति का नाम राजनीति है। यहां बल की जगह बुद्धि का प्रयोग अधिक किया जाता है। बुद्धि बल से बड़ा कोई बल नहीं। चरित्र हनन से लगाकर इनकम टैक्स और ईडी के छापों से जो काम कुशलतापूर्वक संपन्न किया जा सकता है, वह बल प्रयोग द्वारा नहीं किया जा सकता।
राजनीति काजल की कोठरी है, इसका फायदा उठाकर कई राजनेता यहां काले कारनामे भी कर जाते हैं, और अपनी छवि भी स्वच्छ बनाए रखना चाहते हैं। लेकिन जब ऐसे नेता मुंह की खाते हैं, तो जनता से सरे आम थप्पड़ भी खाते हैं, चेहरे पर कालिख पुतवाते हैं, छापे भी पड़वाते हैं और जेल की हवा भी खाते हैं। कहती रहे जनता, आप तो ऐसे न थे।।
हिंसा हिंसा है, शाब्दिक हो अथवा शारीरिक ! खेद है, शाब्दिक हिंसा का खेल आजकल राजनीति में इतना बढ़ गया है कि प्रतिकार स्वरूप आम जनता भी शारीरिक हिंसा पर उतर आई है। शब्दों का घाव अधिक गहरा होता है, यह फिर भी तमाचा खाने वाला नहीं समझ पाता ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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