श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हम लिखते क्यूं हैं ?।)

?अभी अभी # 394 ⇒ हम लिखते क्यूं हैं? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यह एक ऐसा ही प्रश्न है, मानो किसी जीते जागते व्यक्ति से पूछा जाए, वह जिंदा क्यूं है, अथवा किसी खाते पीते इंसान से पूछा जाए, वह खाता क्यूं है। लेकिन कभी कभी भरे पेट, अथवा खाली दिमाग, ऐसे प्रश्न पूछने में आ ही जाते हैं।

जिंदगी तो जीना है, और जिंदा रहने के लिए खाना भी जरूरी है, लेकिन इसके अलावा क्या जरूरी है और क्या नहीं, यह हर व्यक्ति की परिस्थिति, प्राथमिकता और पसंद पर निर्भर करता है। भोजन करने से पहले कोई व्यक्ति यह नहीं सोचता, वह क्यूं खा रहा है, और पेट भरने के बाद कहां ऐसे खयाल आते हैं।।

लेखन का भी ऐसा ही है, लिखने के पहले कभी ऐसा खयाल नहीं आता कि हम क्यूं लिख रहे हैं, और लिखने के बाद तो ऐसे प्रश्न का सवाल ही पैदा नहीं होता। हर प्रसिद्ध लेखक से फिर भी इस तरह के प्रश्न किए जाते हैं, जिनके जवाब भी लाजवाब होते हैं।

मेरे सामने आज यह प्रश्न क्यूं पैदा हुआ, मैं कुछ समझ नहीं पाया, लेकिन जब से कल अनूप शुक्ल जी की जबानी दीपा की कहानी सुनी है, मेरे लेखन पर भी मेरी निगाह उठ गई है। हम साधारण इंसान हैं, कोई गोर्की, प्रेमचंद अथवा परसाई, त्यागी, शरद नहीं। लेकिन अगर आप एक साधारण इंसान के बारे में नहीं लिख पाते, तो आपके आदर्श आपके लेखन से कोसों दूर ही रहेंगे, और आप बार बार यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि आखिर आप लिखते ही क्यूं हैं।।

अनूप शुक्ल जी को पढ़ना, अपने आपको पढ़ना है, हर उस आम आदमी को पढ़ना है, जो हमारे आसपास मौजूद है, लेकिन हमारी लेखनी उससे कहीं कोसों दूर, कुछ और ही तलाश रही है। हम लिखना पढ़ना तो सीख गए, लेकिन लिखना कब सीखेंगे।

हम लिखते क्यूं है, इसका पूरा जवाब मुझे अनूप शुक्ल जी के कल के आलेख, दीपा से मुलाकात से मिल गया है। अक्सर इस विषय पर बहस हुआ करती है कि एक लेखक, साहित्यकार अथवा व्यंग्यकार कोई जननेता, समाज सेवी अथवा सामाजिक

कार्यकर्ता नहीं है। वह समाज को सिर्फ आईना दिखा सकता है, लेकिन शुक्ल जी जो साहित्य सेवा के अलावा शासकीय सेवा से भी जुड़े रहे हैं, आज सेवानिवृत्त होने के बाद भी सेवा से मुंह नहीं मोड़ रहे हैं।।

साहित्य सेवा के लिए तो साहित्यकारों और लेखकों को पुरस्कृत किया ही जाता है, लेकिन साहित्य के साथ साथ अगर अपने आसपास के असली पात्रों और चरित्रों पर निगाह डाली जाए, उनसे करीबी रिश्ता दीपा की तरह बनाया जाए, उनके चेहरे पर मुस्कान लाई जाए तो यह सेवा साहित्य सेवा से कई गुना श्रेष्ठ है।

जीवन जितना सहज और सरल हो, वह उतना ही सुंदर होता है। खाली कॉपियों पर हमने बहुत सुंदर लेखन किया, लेकिन फिर भी लेखनी में वह सुंदरता और सहजता नहीं आई जो अनूप शुक्ल जी के लेखन में झलकती है।

उनकी सहजता और सरलता कब सेवा में परिवर्तित हो जाती होगी, शायद वे भी नहीं जान पाते होंगे। एक अच्छा लेखक यूं ही नहीं लिखता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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