श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लाखों का सावन… “।)
एक वह भी ज़माना था, (आप समझ गए) हाँ, वह कांग्रेस का ज़माना था, जब सावन लाखों का होता था, और नौकरी दो टके की, यानी 90-ढाई की ! मास्टर गाँव में पड़ा रहता था, और नई नवेली बहू शहर में सास-ससुर की सेवा करते हुए आनंद बक्षी का यह गीत सुनकर पति-परमेश्वर को कोसा करती थी।
उसे भी अपने मायके के सावन के झूले याद आया करते थे।
अब वह न घर की थी, न नाथ की।
समय बदलते देर नहीं लगती।
जो नौकरी कभी टके की थी, वह लाखों की हो गई, और लाखों का सावन टके का हो गया। सावन लगने पर किसी को आज उतनी खुशी नहीं होती, जितनी तनख्वाह में इन्क्रीमेंट लगने पर होती है।
तब भी सावन लगने से ज़्यादा खुशी हमें गुरुवार को शहर के थिएटर में नई फिल्म लगने पर होती थी। आज भी अच्छी तरह से याद है कि आया सावन झूम के जब रिलीज़ हुई थी, तो झूमकर बारिश हुई थी। जिनके पास छाते नहीं थे, वे सावन का मज़ा झूमकर ही नहीं भीगकर भी ले रहे थे। ।
कितनी फुरसत थी, जब सावन आता था ! श्रावण सोमवार को गाँधी-हॉल का बगीचा खचाखच महिलाओं और बच्चों से भर जाता था। पेड़ों पर झूले बाँध दिये जाते थे, जिन पर युवतियां जोड़े से झूला करती थी। ऊपर जाना, नीचे आना, ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव को हँसते-हँसते झेलना, यही तो ज़िन्दगी का मेला होता था। बच्चों के लिए तो पुंगी और फुग्गे ही काफी थे। घास में लोटना और कोड़ा-बदाम छाई खेलना। घर की बनाई पूरी/पराँठे के साथ आलू/भिंडी की सब्जी, प्याज-अचार, और गाँधी-हॉल के गेट से दो रुपये का नमकीन मिक्सचर। बगीचे की घास पर मूँगफली के बचे हुए छिलके थे। बस, यही लाखों का सावन था।
समय ने करवट बदली ! सियासत ने अपना रंग बदला, ढंग बदला।
सावन की जगह बदले का मौसम आ गया। 60 साल से सोलह साल तक का पागल मन तलत का यह गीत गुनगुनाने लग गया !
बदली, बदली दुनिया है मेरी। वह बादल की बदली की नहीं, डिजिटल इंडिया की बात कर रहा है, वह सावन की बारिश में भीगकर बंद एटीएम तक नहीं जाना पसंद करता। paytm का आनंद लेता है, और रेडियो मिर्ची पर मन की बात सुना करता है।
आजकल की फिल्मों ने भी सावन का दामन छोड़ दिया है,
संगीत ने मधुरता खो दी है,
तो गानों ने अर्थ खो दिया है।
व्यर्थ की फिल्में करोड़ों कमा रही है तो पद्मिनी पद्मावत बनी जा रही है। सावन कहीं प्यासा है तो कहीं अभी से ही सावन-भादो की झड़ी लगी जा रही है। संगीत की स्वर-लहरियां मेरे कानों में गूँज रही हैं। नेपथ्य में फ़िल्म आया सावन झूम के का गाना बज रहा है। मन भी आज यही कह रहा है, सावन आज भी लाखों का है, सावन को आने दो।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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