श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| ढंग की बात ||“।)
अभी अभी # 405 ⇒ || ढंग की बात || श्री प्रदीप शर्मा
कौन नहीं चाहता, अपने मन की बात कहना, कोई कह पाता है, और कोई मन में ही रख लेता है। मन की बात कही तो बहुत जाती है, लेकिन मन की बात सुनने वाला कोई बिरला(ओम बिरला नहीं) ही होता है।
एक होती है मन की बात, और एक होती है ढंग की बात। कहीं कहीं बात करने का ढंग ही इतना प्रभावशाली होता है कि, बात भले ही ढंग की ना हो, श्रोताओं पर अपना प्रभाव जमा लेती है। वैसे मन की बात का वास्तविक उद्देश्य शायद आम आदमी की नब्ज टटोलना ही रहा होगा। देश का प्रधानमंत्री जब आपको संबोधित करता है, तो उसकी कुछ बातें तो अवश्य मन को छू जाती होंगी।।
हम पिछले ११० महीनों से मन की बात कार्यक्रम नियमित रूप से, हर महीने के अंतिम रविवार को सुबह 11:00 बजे आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सुनते आ रहे हैं। आम चुनाव के तीन महीने के अंतराल के बाद शायद यह सिलसिला पुनः प्रारंभ हो।
अगर मन की बात कुछ ढंग की हो, तो श्रोता का भी सुनने का आकर्षण बढ़ जाता है। मन की बात के नाम पर केवल अपनी ही तारीफ करना, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना और केवल अपनी सफलताओं का डंका बजाना कुछ समय तक तो कारगर रहता है, लेकिन बाद में वह नीरस और उबाऊ होता चला जाता है। फिर वह मन की बात नहीं रह जाती ;
फिर तेरी कहानी याद आई
फिर तेरा फसाना याद आया ;
हां अगर मन की बात, साथ साथ में ढंग की बात भी हो, तो क्या कहने। लेकिन ढंग की बात कहना जितना आसान है, लिखना उतना आसान नहीं। अब ढंग को ही ले लीजिए, इसमें ढ के ऊपर तो बिंदी है, लेकिन नीचे नहीं। ढोर, ढोल, ढाल और ढक्कन में भी ढ के नीचे बिंदी नहीं लगती।
लेकिन यही ढ जब शब्द के अंत में आ जाता है, तो आषाढ़, दाढ़ और बाढ़ बन जाता है, यानी ढ के नीचे बिंदी लग जाती है। बढ़िया, सिलाई – कढ़ाई, और पढ़ाई में ढ बीच में है, फिर भी ढ के नीचे बिंदी है।
लेकिन फिर भी ढ के रंग ढंग हमें समझ में नहीं आते। बेढब बनारसी में नीचे बिंदी गायब है। बड़ा बेढंगा है यह ढ। इसकी बढाई की जाए अथवा इसे बधाई दी जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।।
जब ढ के ही ऐसे रंगढंग हैं, तो ढंग की बात कितनी ढंग की हो सकती है यह विचारणीय है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इस बार मन की बात सुनना चाहते हैं, अथवा ढंग की बात।
हमारे मन की बात तो यही है कि बहुत हो गई मन की बात, अब कुछ ढंग की बात भी हो जाए। संसद में केवल तालियां ही नहीं बजें, किसी की शान में केवल कसीदे ही नहीं कढ़े जाएं, कुछ तर्क वितर्क, सवाल जवाब हो, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता की समस्याओं पर बात करें, केवल अपने नेता की जय जयकार ही नहीं करते बैठें। गहमा गहमी हो, दोनों ओर से संयम और सौहार्दपूर्ण वातावरण का नज़ारा हो।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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