श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी पसंद…“।)
अभी अभी # 428 ⇒ ✓ मेरी पसंद… श्री प्रदीप शर्मा
मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना
कुंडे कुंडे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचाराः
नवा वाणी मुखे मुखे।।
मेरी आपकी पसंद एक हो ही नहीं सकती, पसंद एक होते ही हम एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं। परिचय पसंद की पहली कड़ी है, जिसमें बच्चे हमसे कई गुना आगे हैं। जितनी जल्दी वे आपस में घुल मिल जाते हैं, उतनी जल्दी हम बड़े लोग नहीं।
कहीं कहीं तो परिचय में ही फिल्म खत्म हो जाती है, पसंद नापसंद का तो सवाल ही नहीं, जब पता चलता है कि वह तो उन सक्सेना जी का बेटा है, जिनसे आपका छत्तीस का आंकड़ा है। कहां की पसंद नापसंद कहां तक असर कर डालती है। इसे आप दुराग्रह अथवा पूर्वाग्रह भी कह सकते हैं।।
कहीं कहीं तो पसंदगी का कोई कारण नहीं होता और इसी प्रकार नापसंदगी का कोई कारण नहीं होता। आप चाहें तो इसे माइंड सेट अथवा कंडीशनिंग भी कह सकते हैं। एक विशिष्ट अखबार, पत्रिका अथवा लेखक आपकी पसंद का हो सकता है। सालों से एक ही दर्जी, एक ही नाई, एक ही अखबार वाला, दूध वाला और किराने वाला, एक ही पेस्ट, एक ही ऑयल और बालों की एक ही स्टाइल। क्या कर सकते हैं, पसंद अपनी अपनी।
समझ और जानकारी होते हुए भी खानपान और रहन सहन में अपनी पसंद हमें एक दूसरे से अलग बनाती है। क्या हमारी पसंद हमारा जुनून अथवा आदत बन जाती है। सुबह की चाय हमारी पसंद है, मजबूरी है, अथवा आदत, हम खुद ही नहीं जानते। जरूर सुबह की चाय का संबंध आपकी जुबां के साथ साथ पेट से भी है।।
किसी को घूमना फिरना पसंद है तो किसी को पढ़ना लिखना। किसी को अधिक बात करना पसंद है तो किसी को कम बात करना। अगर समय के साथ अगर समझौता नहीं किया जाता तो आपकी पसंद किसी को अखर भी सकती है। मुझे अखबार के फ्रंट पेज पर न्यूज पसंद है, लेकिन मुझे अक्सर वहां विज्ञापन नजर आता है। इसलिए मैने अखबार पढ़ना ही छोड़ दिया। लोग मुझे सनकी कहें तो कहें। मैं जानता हूं, अखबार सिर्फ मेरे लिए नहीं छपता।
पसंद से ही तो रुचि शब्द बना है। वैसे तो रुचि को taste भी कहते हैं और सुरुचि को good taste.
Rich taste वालों को, ऊंचे लोग, ऊंची पसंद वाला कहा जाता है। कभी आपको गुलाबजामुन पसंद था, और अमिताभ बच्चन भी, लेकिन उम्र के साथ, अब दोनों से अरुचि हो गई है। एक समय था जब कपिल कपिल किया करते थे, अब तो धोनी धोनी कहते कहते भी थक गए। आप करते रहिए विराट विराट।।
अब काहे की अपनी पसंद, बस किसी तरह दिन काट रहे हैं। महंगाई को रोएं या भ्रष्टाचार को। ना आजकल पुरानी जैसी फिल्में बनती हैं और ना ही पुरानी फिल्मों जैसा संगीत। सहगल और रफी को छोड़ कौन बाबा सहगल और हिमेश रेशमिया को सुनेगा।
हमारी उम्र में जो मन करा खाया और जब मर्जी करी, साइकिल से घूमने निकल गए। जेब में अगर दो रुपए हुए तो हम शहंशाह। आज का पिज्जा, बर्गर और पास्ता मनचूरियन हम खाते नहीं, रात भर डीजे पर नाचते नहीं। लोग सोचते हैं, हमारी पसंद को क्या हो गया है, और हम सोचते हैं, आज की पीढ़ी को क्या हो गया है। पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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